मनुष्य में पराशक्ति के प्रति हमेशा ऐसा आकर्षण है की वह अपने अंदर मौजूद शक्तियों का ज्ञान नहीं कर पाता। कुछ मनुष्य स्वयं को सिद्ध प्रमाणित कर उसका कोई न कोई रूप प्रचारित कर देते हैं। उनका उद्देश्य पवित्र होता है। वह सोचते हैं कि इससे आम मनुष्य को बुरी राह से हटा कर धर्म मार्ग पर रखा जाये। व्यवहार में उल्टा होता है। लोग अपने अपने इष्ट के रूपों को लेकर आपस में विवाद करते हैं।
विश्व में अनेक धर्म हैं। इनसे जुड़े धर्म समुदायों में भी विभाजन हो चुका है। विदेशों में प्रवर्तित धर्म और उसके समुदाय को वर्तमान में अध्ययन करें तो पायेंगे कि वह दो तीन तो कहीं चार भागों में बंट गये हैं। उनके धर्मगुरु अपने अनुयायियों को दूसरे धर्म के लोगों का भय दिखाकर भले ही अपने पाले में रखते हैं पर फिर भी उनके आपसी हिंसक संघर्ष होते रहते हैं। एक ही धर्म का एक समुदाय अपने को असली एवं शुद्ध बताता है तो दूसरे समुदाय को दुष्ट कहता है। इसके विपरीत भारतीय धर्मों में विभिन्न समुदाय होने के बावजूद कहीं आपसी संघर्ष का इतिहास नहीं है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक यह मानते हैं कि परमात्मा अनंत है। उसको साकार रूप से भले ही न देखा जाये पर ध्यान, योग तथा भक्ति के माध्यम से उसकी उपस्थिति की अनुभूति अपने हृदय में की जा सकती है। यह बात सही है कि लोग अपनी सुविधा के अनुसार साकार तथा निराकार भक्ति करते हैं पर एक दूसरे के प्रति उनमें आदरभाव रहता है। यहां तक कि एक ही परिवार में अनेक सदस्यों का अलग अलग इष्ट देव होता है पर मूल रूप से यह सभी मानते हैं कि परमात्मा एक है। इस पर कहीं कोई विवाद न होता है न होना चाहिए।
विश्व में अनेक धर्म हैं। इनसे जुड़े धर्म समुदायों में भी विभाजन हो चुका है। विदेशों में प्रवर्तित धर्म और उसके समुदाय को वर्तमान में अध्ययन करें तो पायेंगे कि वह दो तीन तो कहीं चार भागों में बंट गये हैं। उनके धर्मगुरु अपने अनुयायियों को दूसरे धर्म के लोगों का भय दिखाकर भले ही अपने पाले में रखते हैं पर फिर भी उनके आपसी हिंसक संघर्ष होते रहते हैं। एक ही धर्म का एक समुदाय अपने को असली एवं शुद्ध बताता है तो दूसरे समुदाय को दुष्ट कहता है। इसके विपरीत भारतीय धर्मों में विभिन्न समुदाय होने के बावजूद कहीं आपसी संघर्ष का इतिहास नहीं है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक यह मानते हैं कि परमात्मा अनंत है। उसको साकार रूप से भले ही न देखा जाये पर ध्यान, योग तथा भक्ति के माध्यम से उसकी उपस्थिति की अनुभूति अपने हृदय में की जा सकती है। यह बात सही है कि लोग अपनी सुविधा के अनुसार साकार तथा निराकार भक्ति करते हैं पर एक दूसरे के प्रति उनमें आदरभाव रहता है। यहां तक कि एक ही परिवार में अनेक सदस्यों का अलग अलग इष्ट देव होता है पर मूल रूप से यह सभी मानते हैं कि परमात्मा एक है। इस पर कहीं कोई विवाद न होता है न होना चाहिए।
हमारे वेदांत दर्शन में कहा गया है कि
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साक्षादष्विरोधं जैमिनि।
‘‘शब्द को साक्षात् परब्रह्म मानने में भी कोई विरोध नहीं है ऐसा जैमिनि आचार्य मानते हैं।
अभिव्यक्तेरित्याश्मरथ्यः।
‘‘देश विशेष में ब्रह्म का प्रकट रूप होता है इसलिये इसमें कोई विरोध नहीं है।’’
‘‘अनुस्मृतेर्बादरिः।
‘‘ऐसा बादरि नामक आचार्य मानते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि भक्ति के स्वरूप या परमात्मा के अस्तित्व को लेकर भले ही आपस में मतभेद हों पर मनभेद नहीं होना चाहिए। इसके अलावा किसी की भक्ति की प्रक्रिया और परमात्मा के रूप पर भी प्रतिकूल टिप्पणियां न करना ही उचित है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानव मन की व्यापकता का चिंतन करते हुए नित नये सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। हमारे यहां समय समय पर ऐसे महापुरुष भी इस धरती पर प्रकट होते हैं जो भले ही किसी धर्म या समुदाय के हों पर उनको सारा देश बाद में देवत्व का दर्जा प्रदान करता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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आभार।
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