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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, March 21, 2012

रहीम के दोहे-निंदक को दया का पात्र समझना चाहिए

             आधुनिक युग में भौतिकतवाद ने अनेक ऐसे प्रायोजित नायकों को स्थापित किया है जो धर्म, कला, साहित्य, समाज तथा आर्थिक जगत के शिखर पर पहुंचकर लोगों को सिखाने लगते हैं कि जीवन कैसे जिया जाये? वह वस्तुओं का विज्ञापन करते हैं तो समाज की व्यवस्था में भी अपना दखल इस तरह देते हैं कि जैसे उन जैसा महाज्ञानी कोई न हो। यह प्रायोजित नायक अगर वस्तुओं के उत्पादों का विज्ञापन करते हैं तो समाज पर नियंत्रण करने वाले ठेकेदारों के साथ खड़े होकर उनको लोगों पर नियंत्रण करने में भी सहायक बनते हैं। आकर्षण तथा विश्वास के जाल में फंसा आम जनमानस अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में अच्छे बुरे की पहचान नहीं कर पाता। यही कारण कि आजकल के युवा गीत, संगीत तथा नृत्य के जाल में फंसा है। अभी हाल ही में एक तमिल अंग्रेजी मिश्रित कोलेवरी डी को हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भारी लोकप्रियता हासिल हुई। शब्द किसी के समझ में नहीं आते पर संगीत पर ही लोग थिरक रहे हैं। एक प्रेमिका से निराश प्रेमी के शब्दों को समझे बिना केवल संगीत की धुन पर थिरकना इस बात का प्रमाण है कि लोग आत्मज्ञान से इतने परे हैं कि उन्हें उछलकूद की जिंदगी जीकर मन बहलाना पड़ रहा है।
कविवर रहीम के अनुसार
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अनुचित वचन न मानिए, जदपि गुराइस गाढ़ि।
है ‘रहीम’ रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि।।
              ‘‘कितना भी बड़ा आदमी क्यों न हों उसकी गलत बात नहीं मानिए भले ही वह कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हो। भगवान श्री राम ने अपने पिता की बात मानते हुए वनगमन किया पर फिर भी उनसे अधिक यश उस भरत को प्राप्त हुआ जिन्होंने मां की आज्ञा ठुकराकर राज्य त्याग दिया।’’
‘‘अब ‘रहीम’ मुश्किल बढ़ी, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलें न राम।।
‘‘दुनियां में दो महत्वपूर्ण काम एकसाथ करना अत्यंत कठिन है। सच का साथ लो तो जग नहीं मिलता और झूठ बोलो तो परमात्मा से साक्षात्कार नहीं हो पाता।
         आत्म ज्ञान के अभाव झूठ का इतना बोलबाला हो गया है कि लोग यह सोचकर चलते हैं कि भगवान उनके दुष्कर्मों को नहीं देख रहा है। धर्म और अध्यात्म का प्रचार करने वाले लोग पर्दे के पीछे विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। स्वयं कभी परमात्मा का स्वरूप जो लोग समझ नहीं पाये वह दूसरों को समझा रहे हैं। जीवन की सच्चाई यह है कि अगर सत्य की राह चलो तो लोग साथ नहीं होते। जब लोग साथ होते हैं तो वह असत्य की राह पर चलने को विवश करते हैं ऐसे में शुद्ध भाव से भक्ति अत्यंत कठिन है। शुद्ध भाव से भक्ति न होने पर मन को शांति नहीं मिलती। यही कारण है कि आज आधुनिक साधनों से सुसज्तित आदमी के मन में भी शांति नहीं है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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