हमारे देश में विकास बढ़ रहा है तो साथ में एक ऐसा वर्ग भी पैदा हो रहा है जिसके लिये अधिक धन मानसिक रूप से विकृत होने का कारण बन रहा है। अनेक लोगों के पास इतना धन आ रहा है कि वह समझते ही नहीं कि उसको खर्च कहां करें? उनमें स्वयं और उनके परिवार के लोगों में धन का अभिमान इस कदर घर कर जाता है कि वह समझते हैं कि उनके आगे निर्धन या अल्पधनी तो पशुओं जैसा जीव है। वैसे भी हमारे अनेक सामाजिक विशेषज्ञ नवधनाढ्यों में बढ़ती अपसंस्कृति को लेकर चिंतित है। समाज में अनेक प्रकार के वर्ण, वर्ग तथा भाषा समूंहों में वैमनस्य बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण यही है कि एक तरफ ऐसे लोग हैं जिनके पास धन की बहुतायत है दूसरी तरफ ऐसे भी है जिनके पास खाने के लिये भी पर्याप्त नहीं है। पाश्चात्य सभ्यता के चलते जहां दान, दया और परोपकार की प्रवृति का हृास हुआ है वहीं नवधनाढ्यों के अहंकार ने समाज में संवदेनहीनता का ऐसा वातावरण बना दिया है जो अंततः वैमनस्य का कारण बनता है।
नीति विशारद भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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विपुलहृदयैरीशैरेतज्जगज्जनितं पुरा विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा।
इह हि भुवनान्यन्यै धीराश्चयतुर्दशभुञ्जते कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वर।।
‘‘बहुत समय पहले उदारचित्त महापुरुषों ने इस धरती को अपनाया। कुछ ने इसका जमकर उपभोग किया। कुछ ने इसे प्राप्त कर दूसरों को दान दिया। आज भी कई महान बलशाली राजा धरती के विशाल भूभाग के स्वामी हैं पर उनको अभिमान तनिक भी नहीं है। मगर जो कुछ ही गांवों में स्वामी है वह अपनी संपत्ति पर इतराते हैं।
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विपुलहृदयैरीशैरेतज्जगज्जनितं पुरा विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा।
इह हि भुवनान्यन्यै धीराश्चयतुर्दशभुञ्जते कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वर।।
‘‘बहुत समय पहले उदारचित्त महापुरुषों ने इस धरती को अपनाया। कुछ ने इसका जमकर उपभोग किया। कुछ ने इसे प्राप्त कर दूसरों को दान दिया। आज भी कई महान बलशाली राजा धरती के विशाल भूभाग के स्वामी हैं पर उनको अभिमान तनिक भी नहीं है। मगर जो कुछ ही गांवों में स्वामी है वह अपनी संपत्ति पर इतराते हैं।
अब यह स्थिति है कि जिनके पास धन है वह दान, या परोपकार कर समाज में प्रभुत्व स्थापित करने की बजाय उसका अनाप शनाप खर्च कर अपने वैभव दिखाना चाहते हैं। यही कारण है कि समाज के असंतोष तत्व अपराध की तरफ भी आकृष्ट हो रहे हैं। कभी कभी तो लगता है कि ऐसे अनेक लोगों के पास धन आ गया है जो उसे पाने योग्य ही नहीं है या फिर उनको धन पचाने का मंत्र नहीं मालुम। हम देख रहे हैं कि देश में उपभोग संस्कृति का प्रचार हो रहा है जिससे अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति लोगों का रुझान न के बराबर रह गया है। जबकि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य दंभी, लालची और कामुक हो जाता है और उसमें पशुवत व्यवहार करने की इच्छा बवलती हो उठती है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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