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Friday, January 15, 2010

चाणक्य की नीति-पुरानी बातों को याद करने से लाभ नहीं

अहो बत विचित्राणि चरितानि महाऽऽत्मनाम्।
लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
अहे! महात्माओं का चरित्र भी बहुत विचित्र होता है। एक तरफ वह धन को तिनके समान मानते हैं किन्तु उसके भार से झुक जाते हैं।
गते शोको न कत्र्तव्यो भविष्यं नैव चिनतयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।।
हिंदी में भावार्थ-
पहले हुई घटना को याद करने से कोई लाभ नहीं है। इससे अच्छा है भविष्य की चिंता करें। बुद्धिमान लोग हमेशा ही वर्तमान काल में कार्य करने के लिये प्रवृत्त होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर दिन नया है यही मानने वाले इस जीवन का आनंद उठाते हैं। पहले की न केवल बुरी बल्कि अच्छी घटनाओं का भी भुला दें। कल जो बीत गया वह लौट कर नहीं आयेगा। अपनी असफलता को ही नहीं वरन् सफलता को भी भूल जायें। यही जीवन के आनंद उठाने का नियम है।
यदि कल हुए अपमान का स्मरण किया तो आज भी तकलीफ देगा। अगर कल हुए सम्मान को दिमाग में संजोया तो आज कर्म करने के लिये मन प्रवृत्त नहीं होगा। कल अपने दैहिक कर्म से जो सांसरिक उपलब्धि पायी उस पर गर्व किया तो फिर आज कोई अच्छा कर्म नहीं कर सकते। अगर कल कहीं कोई नाकामी मिली तो उसका स्मरण किसी नये कार्य में मन नहीं लगने देगा। कहने का मतलब है कि अपने स्मृतियों से जितना दूर रहें अच्छा है वह आंनद दें या कष्ट पर अगले कार्य के लिये व्यवधान पैदा करती हैं। मनुष्य जीवन में स्वच्छंद ढंग से कार्य करने का जो अवसर मिलता है वह परमात्मा की कृपा समझना चाहिये। दुःख सुख, मान अपमान और सफलता और सफलता केवल दृश्य मात्र है और उसके दृष्टा की तरह देखें तो उनका अच्छा प्रभाव अहंकार नहीं आने देता और बुरा विचलित नहीं करता।
इस संसार में अनेक ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि धन तिनके के समान है पर उसका भार हर कोई नहीं उठा पाता। अगर सज्जन आदमी है तो धन आने पर अधिक विनम्र हो जाता है और अगर दुर्जन है तो उसे अहंकार आ जाता है। यह भी अजीब बात है कि सभी धन को सामान्य मानते हैं पर दोनों ही प्रकार के लाग उसका भार नहीं उठा पाते। सच तो यह है कि जितना इस संसार में परमात्मा की भूमिका है उतनी ही माया भी निभाती है और कभी कभी तो उससे भी ज्यादा जब उसे पाकर आदमी परमात्मा को भी भूल जाता है। कुल मिलाकर यह संसार विचित्र बातों से भरा पड़ा है और उसे समझने के लिये बुद्धि और ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है जो कि स्वाध्याय से ही प्राप्त किया जा सकता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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1 comment:

निर्मला कपिला said...

व्याख्या बहुत अच्छी लगी आभार

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