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मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है,सौ साधु कोय एक
संत कबीरमन के मते न चालिये, मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है,सौ साधु कोय एक
मन के अनुसार हमेशा मत चला क्योंकि उसमें हमेशा विचार आते रहते हैं। बहुत कम ऐसे लोग ऐसे हैं जिन पर मन सवारी नहीं करता बल्कि वह उस पर सवारी करते हैं। ऐसे ही लोग साधु कहलाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान उसके मन से है जो उसे चलाता है पर यह गलतफहमी उसे होती है कि वह स्वयं चल रहा है। वैसे बिना मन के कोई मनुष्य तो चल ही नहीं सकता पर अंतर इतना है कि कुछ लोग मन पर सवारी करते हैं और कुछ लोगों पर मन सवार हो जाता है। सामान्य मनुष्य के मन में अनेक इच्छायें जाग्रत होती हैं और वह उनके वशीभूत होकर जीवन भर भटकते हैं। एक पूरी होती है तो दूसरी जाग्रत होती है और फिर तीसरी और चौथी। इच्छा पूरी होने पर मनुष्य प्रसन्न होता है और न पूरी होने पर दुःखी । इस तरह वह जीवन भर अज्ञान के अंधेरे में भटकता है। दूसरे वह लोग होते हैं जो अपने अंदर उत्पन्न इच्छाओं को दृष्टा की तरह देखते हैं। ऐसे लोग साधु कहलाते हैं और वह अपने देह के लिये आवश्यक वस्तुओं को जुटाते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं पर सुविधा और विलास की वस्तुओं के प्रति उत्पन्न मोह को वह अपने अंदर अधिक देर तक टिकने नहीं देते। ऐसा नहीं है कि उनके मन में उन चीजों को पाने की इच्छा नहीं आती पर वह उनको अनावश्यक समझकर उसे अधिक तवज्जो नहीं देते। वह हर वस्तु के पीछे अंधे होकर नहीं भागते।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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