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Saturday, May 09, 2009

विदुर नीतिः विद्वान लोग प्रयोजन से अधिक काम नहीं करते

जुआरी प्रशंसन्ति कितवाथं प्रशसन्ति धारणाः।।
यं प्रशंसन्ति बंधक्यो न स जीवति मानवः।।
हिंदी में भावार्थ-
जुआरी तथा चारण जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और जिनकी वैश्यायें बड़ाई करते हुए नहीं करते हुए नहीं थकतीं वह मनुष्य जीवित होते हुए भी मृतक समान है।
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत।
तानहं पण्डितान मनये विशेषा हि प्रसंगित।।
हिंदी में भावार्थ-
जो विद्वान केवल निर्धारित प्रयोजन तक ही अपना करते हैं वह सफल रहते हैं जो उससे अधिक काम करते हैं उनको निरर्थक संघर्ष में उलझना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होना मनुष्य का स्वभाव है पर यह भी देखना चाहिये कि प्रशंसा करने वाला कौन है? जुआरी और सट्टेबाज जब किसी की प्रशंसा करने लगें तो वह व्यक्ति वैसे ही संदेह के दायरे में आ जाता है। उसी तरह वैश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियां भी अपने स्वार्थ पूरे करने वाले मनुष्यों की प्रशंसा करती है। तात्पर्य यह है कि जिन स्त्री पुरुषों का चरित्र ही संदेह के दायरे में हैं उनकी वाणी से प्रशंसा पाने वाले व्यक्ति भी उतने ही संदिग्ध हो जाते हैं। दूसरा तात्पर्य यह भी कि ऐसे लोगों से अपना संबंध नहीं रखना चाहिये क्योंकि उनका हित करने से जहां कोई लाभ नहीं होता वहीं अनजाने में अहित होने पर भी वह हमला कर बैठते हैं। वैसे तो उनके साथ संबंध उजागर होने पर भी समाज में बदनामी का भय रहता है।
विद्वान आदमी अपने देह और मन की शक्ति सीमा के अंदर ही काम करते हैं उससे अधिक थकान होने के कारण वह उसे त्याग देते हैं। आज के युग में इस सिद्धांत का विशेष महत्व है। प्रतियोगिता के इस युग में मालिक या उच्चाधिकारी अपने नौकर या मातहत पर अधिक काम का दबाव डालते हैं उसका सात्विक और नियमानुसार तरीके से प्रतिकार करना चाहिए। एक तो अधिक काम करने से त्रुटि होने पर गलती की गुंजायश रहती है और उस पर उनके प्रकोप का सामना करना ही पड़ता है-इस तरह जिस संघर्ष से बचने के लिये अधिक काम करते हैं वह सामने चला ही आता है। दूसरा यह कि अपने काम में अधिक शारीरिक और मानसिक संताप से पैदा थकावट से अपनी संघर्ष और प्रतिकार की क्षमता का हृास होता है। इसके परिणाम स्वरूप आदमी एक बंधुआ बनकर रह जाता है। जहां उसे अपना काम खोने का खतरा परेशान करता है वहीं अन्यत्र रोजगार पाने के प्रयास करने का भी उसके पास अवसर नहीं रहता। अतः चाहे कुछ भी हो काम उतना ही करना चाहिए जिससे अपना दायित्व पूरा होने के साथ ही प्रयोजन भी सिद्ध हो तथा अपनी देह और मन की स्फूर्ति बनी रहे ताकि समय आने पर विपत्तियों का सामना कर सकें।
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