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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, December 20, 2014

दूसरे को सुधारने की बजाय स्वयं सुधरें-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(doosron ko sudharne ki bajay swayan sudhren-A Hindu hindi religion article)



            जब राज्य समाज या धार्मिक विषय पर नियंत्रण करता है तब क्या स्थिति होती है यह अब विश्व में व्याप्त आतंकवाद के रूप में देख सकते हैं।  विश्व में राज्य कर्म का निर्वाह करने वालों में सामर्थ्य का अभाव होता है और वह अपना पद बचाये रखने के लिये लोगों को धर्म के आधार पर नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं।  अनेक स्थानों पर आधुनिक  राज्य व्यवस्थाओं में अपात्रों का प्रवेश हो गया है। धन, बल और चतुराई से राजपद पाने वालों को राजनीति के जनहित सिद्धांत का ज्ञान ही नहीं होता। इस विश्व के 180 देशों में साठ से अधिक देश धर्म आधारित होने का दावा करते हैं और इन्हीं देशों में हिंसक वातावरण बना हुआ है। इन देशों में धर्म के नाम पर जो ध्ंाधा चल रहा है उससे पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में है। इनकी विचारधारा की दृष्टि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन मूर्तिपूजा समर्थक है इसलिये अवांछनीय है जबकि इन्हीं देशों में सर्वशक्तिमान के नाम पर सबसे अधिक पाखंड है।
            हमारे देश में भारतीय समाज में अनेक विरोधाभास है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रभाव के चलते यहां हिंसक द्वंद्व अधिक नहीं होते। हमारे भारतीय धर्म की रक्षा का दावा अनेक  लोग तथा उनके समूह करते हैं पर सत्य यह है कि वह भारत में व्याप्त भ्रमों के निवारण का प्रयास नहीं करते। अक्सर कहा जाता है कि भारत में दूसरे देशों की जनता से अधिक सोना है।  यह हैरानी की बात है कि कथित बहुमूल्य धातुऐं भी पत्थर समान है यह बात कोई नहीं समझता।  प्रकृति ने हमें अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संपन्न बनाया है पर उसके जल और अन्न को मूल्यवान मानने की बजाय सोना और हीरा पर  अपना हृदय न्यौछावर करते हैं।  विवाह और शोक के अवसर पर धन खर्च कर कथित सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का ऐसा प्रयास करते हैं जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता।
चाणक्य नीति में कहा गया है
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पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैं: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
            हिन्दी में भावार्थ-इस धरती पर जल, अन्न और मधुर वचन यह तीन प्रकार के ही रत्न हैं मूर्ख लोग पत्थरों को रत्न कहते हैं।
            हमारे यहां जाति के आधार पर बहुत वैमनस्य रहा है।  यही कारण है कि हमारे यहां विदेशी धार्मिक विचाराधाराओं ने पदार्पण किया।  यहां अल्प धनिक, श्रमिक तथा निम्न वर्ण के लोगों को अपमानित करने की भयंकर प्रवृत्ति है। दूसरे के  दोषों पर कठाक्ष कर अपनी योग्यता प्रमाणित करने का प्रयास सभी करते हैं पर किसी की प्रशंसा करने का मन किसी का नहीं करता। हमारा मानना तो यह है कि  विदेशी धार्मिक विचाराधारा के धारकों  पर टिप्पणियां करने या उनमें सद्भाव पैदा करने के प्रयासों से अच्छा है भारतीय अध्यात्मिक दर्शन पर चलने वाले समाजों में मानसिक शक्ति का प्रवाह करें।  हम दूसरे को सुधारने की बजाय स्वयं दृढ़ पथ का अनुसरण करें।  यह पथ उपभोग के शिखर पर पहुंचकर पताका फहराने वाला नहीं वरन् त्याग का है।  जहां विदेशी धार्मिक विचाराधारायें मनुष्य, प्रकृत्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं वहीं हमारा दर्शन तत्वज्ञान का ऐसा भंडार है जिसे कोई प्राप्त कर ले तो उसका जीवन धन्य हो जाये।  विदेशी विचाराधाराऐं मनुष्य की पहचान एक छतरी के नीचे दिखाना चाहती हैं पर प्रकृति तथा जीव विज्ञान विविधताओं के आधार पर सृष्टि की जानकारी देता है।  हर जीवन का स्वभाव, रहन सहन तथा आचार विचार धरती पर  अलग अलग समय पर सक्रिय भिन्न भिन्न तत्वों से संपर्क होने से बदलता रहता है। सभी मनुष्य एक जैसे  नहीं हो सकते और सभी समय एक जैसे भी नहीं हो सकते।
            अतः जहां तक हो सके देश के साधु, संतो, बुद्धिमानो तथा समाज सुधारक अपने समाज में ज्ञान चक्षु खोलने का काम करें।  यही सच्चा धर्म ज्ञानियों का है।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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