पूरे विश्व मे भौतिकतावाद का
बोलबाला हो गया है। नयी नयी वस्तुओं के नये नये रूप प्रतिदिन आते हैं। उनके विक्रय
करने के लिये प्रचार माध्यमों में विज्ञापन दिये जाते हैं। स्थिति यह है कि
उत्पादक कंपनियों ने पूरे समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। फिल्म,
कला, पत्रकारिता, समाज सेवा था खेल जैसे क्षेत्रों में अपने अपने बुत बैठा दिये हैं। वस्तुओं के उत्पादन से लेकर उनके विक्रय तक यही
बुत उनके लिये सुविधाजनक मार्ग बनाते हैं।
यही कारण है कि लोगों के सामने कपटी तथा मक्कार लोग वेश बदल बदल कर उनकी
बुद्धि का हरण करने लगते हैं।
कहा जाता है कि पूरे विश्व
में भ्रष्टाचार है। इसका कारण यह है कि
आधुनिक लोकतंत्र में पूंजी की प्रधानता हो गयी है। कोई भी पूंजीपति कहीं पैसा लगाता है तो उसकी वापसी उससे कई गुना चाहता
है। इस लोकतांत्रिक प्रणाली में
जनप्रतिनिधि शासन की देखभाल करते हैं पर प्रत्यक्ष रूप उनको काम करने का अधिकार
नहीं होता जबकि जिम्मेदारी प्रजा के प्रति उनका दायित्व होता है। जो शासन का कार्य
करते हैं उनका प्रजा के प्रति कोई प्रत्यक्ष दायित्व नहीं होता। यही कारण है कि
विश्व के अनेक देशों में जन असंतोष व्याप्त है। यहां तक कि अपने ही चुने हुए
प्रतिनिधियों के प्रति उनमें विश्वास कम होता जा रहा है। विश्व के अनेक देशों में
जनप्रतिनिधि केवल नाम भर के रहते हैं। अमेरिका हो या ब्रिटेन सभी जगह सरकार
अधिकारियों का दबदबा रहता है और वही जनप्रतिनिधियों के मार्गदर्शक होेते हैं। स्थिति यह है कि जनप्रतिनिधि अपने मतदाता से
लुभावने वादे तो कर देते हैं पर जब राजकीय पद पर विराजमान होते हैं तब अधिकारीगण
उनके मार्गदर्शक बनकर मतदाताओं से किये गये वादों से उनके दूर कर देते हैं।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि
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हृदय कपट का वेष धरि, बचन कहि गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों, क्यों मिलिए खालि।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-लोग हृदय
में कपट रखकर मीठी बातें करते हैं। ऐसे लोगों से खुलकर मिलना संभव नहीं है जो
पाखंडपूर्ण व्यवहार करते हैं।
मिलै जो सरलहि ह्वै, कुटिल न सहज बिहाड़।
सो सहेतु ज्यों वक्र गति, ब्याल न बिलहि समाइ।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-अपना
व्यवहार हमेशा सरल प्रकृत्ति के लोगों से ही करना चाहिये। टेढ़ी प्रकृति के लोग कभी
भी असंयत व्यवहार कर धोखा दे सकते हैं। सांप भले ही अपनी बिल में सीधा जाता है पर
बाहर हमेशा ही टेढ़ी चाल चलता है।
पहले कहा जाता था कि यथा राजा
तथा प्रजा। आधुनिक लोकतंत्र में यह कहावत उलट कर भी देखी जा सकती है। यथा प्रजा तथा राजा। लोगों अपने जनप्रतिनिधियों का आक्षेप तो करते
हैं पर अपने मानस का अध्ययन नहीं करते।
तुलसीदास ने तो चार सौ बरस पहले इसी समाज को देखकर अपनी महान रचनायें
प्रस्तुत की थीं। अगर उस समय का समाज वास्तव में इतना महान होता तो तुलसीदास जी
तथा उनके समकालीन कविगण ऐसी रचनायें नहीं देते जो लोगों की प्रकृत्तियो पर व्यंग्य
करती नजर आती हैं। पूरा समाज के सभी लोग कभी भ्रष्ट नहीं रहे पर इतना तय है कि सरल
हृदय लोग भी नगण्य ही रहे हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग कहते हैं कि जमाना खराब
हो गया है यह अलग बात है कि लोग छोटे छोटे मामलों में एक दूसरे झूठ बोलने के साथ
धोखा भी देते हैं। वैसे दूसरे क्या करते हैं, यह देखने की बजाय हर आदमी को आत्मविश्लेषण करे हुए
अपने विचार, व्यवहार तथा
व्यक्तित्व की तरफ घ्यान देना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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