हमारा जीवन हमारे अंदर स्थित तीन प्रकृतियों मन, बुद्धि और अहंकार के अधीन ही होता है। हर मनुष्य देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियां स्वाभाविक रूप से विराजमान रहती है। सामान्य मनुष्य का मन हमेशा ही बहिर्मुखी होता है और वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद यह भी चाहता है कि समाज में उसका अन्य लोग सम्मान करें। वास्तव में यह उसके अंदर मौजूद अहंकार की प्रकृति का भोजन है मन उसे दूसरे से सम्मान कर उसे शांत करना चाहता है। जिन लोगों के पास धन, पद और बाहुबल है उनकी चाटुकारिता बहुत लोग करते हैं जिसे वह अपना सम्मान समझकर प्रसन्न होते हैं। आमतौर से धन, पद और बाहुबल से संपन्न लोग किसी को कुछ देते नहीं है पर उनसे आकांक्षायें करने वाले लोग भविष्य की संभावनाओं के चलते उनके इर्दगिर्द मंडराते हैं। जिनके पास धन, पद और दैहिक शक्ति नहीं है वह भी अपनी सक्रियता रखते तो केवल अपने स्वार्थ के इर्दगिर्द ही हैं मगर चाहते हैं कि उनका अन्य लोग सम्मान करे। इसके लिये वह अपनी ऐसी परोपकार वाली कल्पित कथायें सुनाते हैं जिनके पात्र वह नहीं होते। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के चलते हमारे सामाजिक आधार कमजोर हो चुके हैं ऐसे में लोग एकाकी जीवन का आनंद तो उठाते हैं पर कोई परमार्थ न करने की वजह से उनका सम्मान नहीं होता और उनकी अहंकार की भूख शांत नहीं होती। इसलिये चाहे कहीं भी सार्वजनिक वार्तालाप में चले जायें लोग आत्मप्रवंचना करते मिल जाते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कृतं तं देवासः प्रति गृभ्णन्त्यश्वम्।
हिन्दी में भावार्थ-तेजस्वी तथा कठोर परिश्रमी तथा विकासशील मनुष्य को पूरा समाज अपना पथ प्रदर्शक मानकर उसका अनुसरण करता है।
धिया विप्रो अजायत।
हिन्दी में भावार्थ-विचारक उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
ब्रह्मणे ब्राह्मणं, क्षत्राय राजन्यम्।
हिन्दी में भावार्थ-ज्ञान के लिये विद्वान और रक्षा के लिये वीर की संगत करें।
लोगों के अंदर अज्ञान गहराई तक समा गया है। किसकी संगत करनी है और किसका त्याग करना है तय नहीं कर पाते। आजकल तो हर कोई आदमी यह चाहता है कि उसकी पहुंच ऊंचे पदों तक बैठे लोगों से हो। वह नहीं हो पाये तो उनके चाटुकारों को ही अपना इष्ट मान लेते हैं। अब समाज में किसी का आदर्श कोई अध्यात्मिक विद्वान भी तभी हो सकता है जब उसने भारी धन संग्रह किया हो। तय बात है कि धन संग्रह करने वाले के पास रटारटाया ज्ञान हो सकता है जिसे सुनाने पर वह कमाई करता है पर वह किसी में धारणा शक्ति पैदा नहीं कर सकता। वास्तव में ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं होता वरन् मनुष्य में धारण करने वाली शक्ति भी होना चाहिये जिसके लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। इसलिये ज्ञान के लिये त्यागी मनुष्यों के पास ही जाना चाहिये। दूसरा यह भी देखा गया है कि लोग अपनी रक्षा के लिये असामाजिक तत्वों को संरक्षण देते हैं। उनको यह भ्रम रहता है कि वह वीर है। सच बात तो यह है कि यह असामाजिक तत्व स्वयं की जान बचाने के लिये ही हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। कमजोर पर वह भी पीछे से वार करते हैं। उनको तो कायर मानना चाहिये। अगर अपनी रक्षा करनी है तो ऐसे वीरों की शरण लें तो वाकई दूसरों की रक्षा करने का मजबूत नैतिक आधार रखते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कृतं तं देवासः प्रति गृभ्णन्त्यश्वम्।
हिन्दी में भावार्थ-तेजस्वी तथा कठोर परिश्रमी तथा विकासशील मनुष्य को पूरा समाज अपना पथ प्रदर्शक मानकर उसका अनुसरण करता है।
धिया विप्रो अजायत।
हिन्दी में भावार्थ-विचारक उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
ब्रह्मणे ब्राह्मणं, क्षत्राय राजन्यम्।
हिन्दी में भावार्थ-ज्ञान के लिये विद्वान और रक्षा के लिये वीर की संगत करें।
लोगों के अंदर अज्ञान गहराई तक समा गया है। किसकी संगत करनी है और किसका त्याग करना है तय नहीं कर पाते। आजकल तो हर कोई आदमी यह चाहता है कि उसकी पहुंच ऊंचे पदों तक बैठे लोगों से हो। वह नहीं हो पाये तो उनके चाटुकारों को ही अपना इष्ट मान लेते हैं। अब समाज में किसी का आदर्श कोई अध्यात्मिक विद्वान भी तभी हो सकता है जब उसने भारी धन संग्रह किया हो। तय बात है कि धन संग्रह करने वाले के पास रटारटाया ज्ञान हो सकता है जिसे सुनाने पर वह कमाई करता है पर वह किसी में धारणा शक्ति पैदा नहीं कर सकता। वास्तव में ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं होता वरन् मनुष्य में धारण करने वाली शक्ति भी होना चाहिये जिसके लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। इसलिये ज्ञान के लिये त्यागी मनुष्यों के पास ही जाना चाहिये। दूसरा यह भी देखा गया है कि लोग अपनी रक्षा के लिये असामाजिक तत्वों को संरक्षण देते हैं। उनको यह भ्रम रहता है कि वह वीर है। सच बात तो यह है कि यह असामाजिक तत्व स्वयं की जान बचाने के लिये ही हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। कमजोर पर वह भी पीछे से वार करते हैं। उनको तो कायर मानना चाहिये। अगर अपनी रक्षा करनी है तो ऐसे वीरों की शरण लें तो वाकई दूसरों की रक्षा करने का मजबूत नैतिक आधार रखते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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