यह संभव नहीं है कि मानव मन का कोई स्वामी न हो। जो मनुष्य कहते हैं कि हमारी किसी भी प्रकार के परमात्मीय रूप में आस्था नहीं है वह स्पष्टतः इस मायावी संसार को अपने हृदय में धारण किये रहते हैं। कहने को भले ही उनको नास्तिक कहा जाये यह वह स्वयं ही इसका बखान करें पर सच यह है कि मानव मन का स्वामी या तो सत्य होता है या माया। श्रीमद्भागवतगीता को
लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यह एक पवित्र
किताब है और इसका सम्मान करना चाहिए पर उसमें जो तत्वज्ञान है उसका महत्व
जीवन में कितना है इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को श्रद्धापूर्वक अध्ययन
करने पर ही हो पाता है। श्रीगीता को पवित्र मानकर उसकी पूजा करना और
श्रद्धापूर्वक उसका अध्ययन करना तो दो प्रथक प्रथक क्रियायें हैं।
श्रीगीता में ऐसा ज्ञान है जिससे हम न केवल उसके आधार पर अपना आत्ममंथन कर
सकते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के व्यवहार, खान पान तथा रहन सहन के आधार पर
उसमें संभावित गुणों का अनुमान भी कर सकते हैं। गीता का ज्ञान एक तरह से
दर्पण होने के साथ दूरबीन का काम भी करता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग
परमात्मा की निष्काम आराधना करते हुए अपने अंदर ऐसी पवित्र बुद्धि स्थापित
होने की इच्छा पालते हैं जिससे वह ज्ञान प्राप्त कर सकें। जब एक बार ज्ञान
धारण कर लिया जाता है तो फिर इस संसार के पदार्थों से केवल दैहिक संबंध ही
रह जाता है। ज्ञानी लोग उनमें मन फंसाकर अपना जीवन कभी कष्टमय नहीं बनाते।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
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ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
‘‘जो श्रद्धाहीन और धन के लालची हैं तथा मांस खाने के लिये तत्पर रहते हैं
वह हमेशा दूसरों के धन पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’’
भूमे मातार्नि धेहि भा भद्रया सुप्रतिष्ठतम्।
सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
‘‘हे मातृभूमि! सभी का कल्याण करने वाली बुद्धि हमें प्रदान कर। प्रतिदिन
हमें सभी बातों का ज्ञान कराओ ताकि हमें संपत्ति प्राप्त हो।’’
इस तत्वज्ञान के माध्यम से हम दूसरे के आचरण का भी अनुमान प्राप्त कर सकते
हैं। जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है वह कभी भी किसी के
सहृदय नहीं हो सकते। भले ही वह स्वार्थवश मधुर वचन बोलें अथवा सुंदर रूप
धारण करें पर उनके अंदर बैठी तामसी प्रवृत्तियां उनकी सच्ची साथी हो्रती
हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्वज्ञान में ज्ञान तथा विज्ञान के ऐसे
सूत्र अंतर्निहित हैं जिनकी अगर जानकारी हो जाये तो फिर संसार आनंदमय हो
जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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