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Saturday, August 01, 2009

संत कबीर के दोहे-इष्ट बदलना अपराध है (sant kabir vani-isht badalna apradh hai)

कामी तिरै क्रोधी तिजै, लोभी की गति होय
सलिल भक्त संसार में, तरत न देखा कोय

कामी क्रोधी और लोभी व्यक्ति थोड़ी भक्ति करने के बाद भी इस भवसागर को तैर कर पार कर सकता है पर शराब का सेवन करने वालों की कोई गति नहीं हो सकती।

सौ वर्षहि भक्ति करि, एक दिन पूजै आन
सो अपराधी आत्मा, पैर चौरासी खान

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि सौ वर्ष तक अपने इष्ट या गुरु की भक्ति करने के बाद एक दिन किसी दूसरे देवी देवता की पूजा कर ली तो समझ लो कि पहले की भक्ति गड़ढे में गयी और अपनी आत्मा ही रंज होने लगती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक बार जिस इष्ट की आराधना करना प्रारंभ किया तो फिर उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहिये। सभी जानते हैं कि परमात्मा का एक ही है पर इंसान उसे अलग अलग स्वरूपों में पूजता है। जिस स्वरूप की पूजा करें उसमें पूर्ण रूप से विश्वास करना चाहिये। जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं पर दूसरों के कहने में आकर इष्ट का स्वरूप नहीं बदलना चाहिये। दरअसल विश्वास में बदलाव अपने अंदर मौजूद आत्मविश्वास का ही कमजोर करता है और हम अपने जीवन में आयी परेशानियों से लड़ने की क्षमता खो बैठते हैं।
अपने देश में जितना भक्तिभाव है उससे अधिक अधविश्वास है। किसी की कोई परेशानी हो तो दस लोग आते हैं कि अमुक जगह चलो वहां के पीर या बाबा तुम्हारी परेशानी दूर कर देंगे और परेशान आदमी उनके कहने पर चलने लगता है और अपने इष्ट से उसका विश्वास हटने लगता है। कालांतर में यही उसके लिये दुःखदायी होने लगता है। इस तरह अनेक प्रकार की सिद्धों की दुकानों बन गयी हैं जहां लोगों की भावनाओंं का दोहन जमकर दिया जाता है। सच बात तो यह है कि जीवन का पहिया घूमता है तो अनेक काम रुक जाते हैं और रुके हुए काम बन जाते हैं किसी सिद्ध के चक्कर लगाने से कोई काम नहीं बनता। इस तरह का भटकाव जीवन में तनाव का कारण बनता है। कोई एक काम बन गया तो दूसरे काम के लिये सिद्ध के पास भाग रहे हैं। इस तरह विश्वास में बदलाव हमारी संघर्ष की भावना का कमजोर करता है।

अपनी जिंदगी में हमेशा एक ही इष्ट पर यकीन करना चाहिये। यह मानकर चलें कि अगर कोई काम रुका है तो उनकी मर्जी से और जब समय आयेगा तो वह भी पूरा हो जायेगा। वैसे जीवन में प्रसन्न रहने का सबसे अच्छा उपाय तो निष्काम भक्ति ही है पर उसके लिये दृष्टा बनकर जीना पड़ता है। यह मानकर चलना पड़ता है कि इस तरह के उतार चढ़ाव जीवन का एक अभिन्न अंग है। साथ में निष्प्रयोजन दया भी करते रहना चाहिये यह सोचकर कि पता नहीं इस देह पर आये संकट के लिये कब कौन सहायता करने आ जाये।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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