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Saturday, August 08, 2009

चाणक्य नीति-धर्म बदलने वाला जल्दी नष्ट हो जाता है (chankya niti-change of religion is not good)

आत्मवर्ग परित्यन्य परवर्गे समाश्रितः।
स्वयमेव लयं याति यथा राजात्यधर्मतः।।

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अपना समूह,समुदाय वर्ग या धर्म त्याग कर दूसरे का सहारा लेने वाले राजा का नाश हो जाता है वैसे ही जो मनुष्य अपने समुदाय या धर्म त्यागकर दूसरे का आसरा लेता है वह भी जल्दी नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अक्सर लोग धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। अनेक लोग निराशा, लालच या आकर्षण के वशीभूत होकर धर्म में परिवर्तन कर दूसरा अपना लेते हैं-यह अज्ञान का प्रतीक है। दरअसल मनुष्य के मन में जो विश्वास बचपन में उसके माता पिता द्वारा स्थापित किया जाता है उसी को मानकर वह आगे बढ़ता जाता है। कहा भी जाता है कि माता पिता प्रथम गुरू होते हैं। उनके द्वारा मन में स्थापित संस्कार,आस्था तथा इष्ट के स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि बचपन से ही मन में स्थापित संस्कार और आस्थाओं से आदमी आसानी से नहीं छूट पाता-एक तरह से कहा जाये कि पूरी जिंदगी वह उनसे परे नहीं हो पाता।

कहा भी जाता है कि आदमी में संस्कार,नैतिकता और आस्था स्थापित करने का समय बाल्यकाल ही होता है। ऐसे में कुछ लोग निराशा, लालच,भय या आकर्षण की वजह से से अपने धर्म या आस्था में बदलाव लाते हैं पर बहुत जल्दी ही उनमें अपने पुराने संस्कार, आस्थाऐं और इष्ट के स्वरूप का प्रभाव अपना रंग दिखाने लगता है पर तब उनको यह डर लगता है कि हमने जो नया विश्वास, धर्म या इष्ट के स्वरूप को अपनाया है उसको मानने वाले दूसरे लोग क्या कहेंगे? एक तरफ अपने पुराने संस्कार और आस्थाओं की खींचने वाला मानसिक विचार और दूसरे का दबाव आदमी को तनाव में डाल देता है। धीरे धीरे यह तनाव आदमी की देह और मन में विकार पैदा कर देता है। इसलिये अपने अंदर बचपन से स्थापित संस्कार,आस्था और इष्ट के स्वरूप में में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये बल्कि अपने धर्म के साथ ही चलते हुए सांसरिक कर्मों में निष्काम भाव से लिप्त होना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता में कहा भी है कि अपना धर्म गुणहीन क्यों न हो पर उसका त्याग नहीं करें क्योंकि दूसरे का धर्म कितना भी गुणवान हो अपने लिये डरावना ही होता है।
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