हमारे देश में धर्म के विषय पर दो धारायें
हमेशा प्रचलित रही हैं-एक निराकार भक्ति तथा दूसरी साकार भक्ति। जहां तक हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में वर्णित
सामग्री की बात है तो उसमें दोनों ही प्रकार की भक्ति को ही मान्य किया गया
है। वैसे हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियां तथा तपस्वियों ने सदैव ही परमात्मा के
निराकार रूप को ही श्रेष्ठ माना है पर देखा यह गया है कि समाज के सामान्य जनों ने
हमेशा ही साकार भक्ति करने में ही अपनी सिद्धि समझी है। समाज ने ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों को अपने हृदय में तो स्थान दिया
पर उनकी निराकार भक्ति से कभी प्रेरणा नहीं ली।
यही कारण है कि साकार भक्ति के कारण पूरा समाज धीरे धीरे तार्किक
गतिविधियों की तरफ बढ़ता चला गया। दरअसल
साकार भक्ति में हर मनुष्य अपनी दैहिक सक्रियता न केवल स्वयं देखता है बल्कि
दूसरों को भी दिखाकर सुख उठाना चाहता है।
मंदिर में जाकर फल, फूल,
दूध तथा तेल चढ़ाने की परंपरा साकार तथा
सकाम भक्ति का ही प्रतीक हैं। इसके अलावा भी प्रसाद तथा वस्त्र भी मूर्तियों पर
चढ़ाये जाते हैं। इन सब वस्तुओं की आपूर्ति
बाज़ार करता है। अनेक मंदिरों में विशेष अवसरों पर पूजा सामग्री, प्रसाद तथा मूर्तियों की दुकानें लगी देखी जा
सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि सकाम तथा साकार भक्ति के कारण बाज़ार को लाभ
होता है जैसा कि हम जानते हैं कि आर्थिक प्रबंधक सदैव ही अपनी वस्तुओं के प्रचार
तथा उनके विक्रय के लिये सक्रिय रहते है।
कभी वह अपनी वस्तुओं का विक्रय करने के लिये किसी स्थान को सिद्ध प्रचारित
करते हैं तो कभी अपनी वस्तु को सिद्ध बताकर भगवान के लिये अर्पण करने के लिये
लोगों को प्रेरित करते है। इतना ही नहीं मनुष्य में जीवन के रहस्यों को जानने की
जो जिज्ञासा होती है उसके लिये मोक्ष तथा स्वर्ग के भी रूप भिन्न भिन्न रूप तैयार
किये गये हैं। जिस धर्म के सिद्धांत
अत्यंत सीमित और संक्षिप्त हैं उस पर ही लंबी लंबी बहसें होती हैं। यह बहसें
तत्वज्ञान के नारों से शुरु तो होती हैं और समाज अज्ञान के अंधेरे में होती हैं। दान और दया के रूप को कोई समझ हीं नहीं
आया। गुरु हमेशा ही अपने आश्रमों के लिये
दान मांगते हैं तो दया के के नाम पर अपने व्यवसाय के लिये चंदा प्राप्त करने के
लिये रसीदें काटते हैं।
महर्षि चाणक्य कहते हैं कि
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यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलैपनैः।।
हिन्दी में भावार्थ-जिसके चित्त में सभी प्राणियों के लिऐ दयाभाव है उसे
शरीर पर भस्म लगाने, जटायें
बढ़ाने, तत्वज्ञान प्राप्त करने
तथा मोक्ष के लिये कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
जिस मनुष्य में जीवन के प्रति सहज भाव है उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं
है। संत रविदास ने कहा है कि ‘मन
चंगा तो कठौती में गंगा’। इसके
विपरीत बाज़ार के आर्थिक स्वामी तथा प्रचार प्रबंधक अपने शोर से लोगों के मन को ही
भटकाते हैं। जिस धर्म का सही ढंग से एकांत में हो सकता है उसे उन्होंने चौराहे पर
चर्चा का विषय बना दिया है। भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में यही स्थिति
है। हर धर्म के ठेकेदार अपने निर्धारित
विशिष्ट रंगों के वस्त्र पहनकर यह प्रमाणित करते हैं कि वह अपने समाज के माननीय
है। यह अलग बात है कि किसी भी धर्म के मूल प्रवर्तक ने अपने समाज के लिये किसी खास
रंग की पहचान नहीं बनायी। इस तरह धर्म को
लेकर एक तरह से भ्रम की स्थिति बन गयी है।
अगर हम प्राचीन ग्रंथों के आधार पर धर्म के सिद्धांत की पहचान करें तो वह
आचरण के आधार पर बना हुआ होता है। उसको कोई निश्चित कर्मकांड नहीं है। यही कारण है
कि धार्मिक रूप से हमारे यहां एकता है पर कर्मकांडों में स्थान और क्षेत्र के आधार
पर भिन्नता पायी जाती है। जहां तक स्वयं घर्म के आधार पर चलने का प्रश्न है तो उस
पर अवश्य विचार करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर योगसाधना तथा पूजा आदि कर मन को
स्वस्थ तथा प्रसन्न चित्त बनाना चाहिये। उससे पूरा दिन अच्छा निकलता है। धर्म को
लेकर लोगों से अधिक चर्चा नहीं करना चाहिये क्योंकि अधिकतर लोग इस बारे में अपना
ज्ञान बघारते हैं। हमारे आसपास धर्म के मार्ग
पर चलने वाले लोग उंगलियों पर गिनती करने लायक ही होते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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