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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, December 17, 2016

विचारधारा जब जमीन पर आती है तब ही उसकी शक्ति पता लगती है-है-नोटबंदी पर हिन्दी निबंध (Thought And Practical-Hindi Essay)

भारत के वर्तमान राष्ट्रवादी कर्णधार लगातार यह कह रहे हैं कि नोटबंदी का कदम उन्होंने कालेधन को समाप्त करने के लिये उठाया है।  अनेक बार उन्होंने यह भी कहा कि देश में व्याप्त आतंकवादियों का धन सुखाने के लिये यह कदम उठाया  है। अनेक अर्थशास्त्री इस पर व्यंग्य भी करते हैं पर हमारा विचार इससे अलग है। यह नोटबंदी सामाजिक रूप से ज्यादा प्रभावी होने वाली है भले ही नोटबंदी के समर्थक या विरोधी केवल आर्थिक परिणामों की व्याख्या अपनी अनुसार कर रहे हों।  सबसे बड़ी बात यह कि हमारे समाज में धन से मदांध लोगों का एक ऐसा समूह विचर रहा था जो मुद्रा की कीमत नहीं समझता था। उसे लगता था कि उसके वैभाव की स्थिति स्थाई है इसलिये चाहे जैसे व्यवहार कर रहा था। मुद्रा का अभाव उसे ऐसे अनेक सबक देगा जो अध्यात्मिक विद्वान देते रहे थे पर लोग उनको सुनकर भूल जाते थे।
नोटबंदी के दौरान टीवी और अखबारों पर चल रही बहसों मेें  हमने विद्वानों तर्कों में भारी भटकाव देखा।  सरकार ने पांच सौ, हजार और दो हजार के नोट बंद किये पर फिर दूसरे नये शुरु भी कर दिये।  इस पर कुछ लोगों ने कहा कि यह भ्रष्टाचार की दर दुगुनी कर देगा-यह सही बात अब लग रही है। हम जैसे लोग बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों अथवा साहुकारों के उस धन पर अधिक नहीं सोचते जो आयकर बचाकर उसे काली चादर पहनाते हैं।  हमारी दिलचस्पी उस सार्वजनिक भ्रष्टाचार से है जिसने देश का नैतिक चरित्र खोखला किया है।  हमने पश्चिमी अर्थशास्त्र के साथ देशी अर्थशास्त्र का-चाणक्य, विदुर, कौटिल्य तथा मनुस्मृति- अध्ययन किया है और इस आधार पर हमारा मानना है कि काले तथा भ्रष्ट धन में अब अंतर करना चाहिये।  हमारा मानना है कि करों की अधिक दरों तथा कागजी कार्यवाही की वजह से अनेक लोग आयकर बचाते हैं पर उनके व्यवसाय को अवैध नहीं कह सकते।  इसके विपरीत राजपद के दुरुपयोग, सट्टे तथा मादक पदार्थों के प्रतिबंध व्यवसाय से उपार्जित धन हमारी दृष्टि से भ्रष्ट होने के साथ ही देश के लिये बड़ा खतरा है।  कालाधन पर प्रहार के लिये दीवानी प्रयास हो सकते हैं पर भ्रष्ट धन बिना फौजदारी कार्यवाही के हाथ नहीं आयेगा। आप कालेधन के समर्पण के लिये प्रस्ताव दे सकते हैं पर भ्रष्ट धन के लिये यह संभव नहीं है।
सच बात तो यह है कि वर्तमान में राष्ट्रवादी कर्णधार अपने ही स्वदेशी विचार को लेकर दिग्भ्रमित हैं।  वह बात तो करते हैं अपने देश के महान दर्शन की पर अमेरिका, जापान, चीन और ब्रिटेन जैसा समाज बनाने का सपना देखते हैं। पश्चिमी और स्वदेशी विचाराधारा में फंसे होने के कारण उनके दिमाग में विरोधाभासी विचार पलते हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्र में दर्शनशास्त्र को छोड़कर सारे शास्त्र शामिल होते हैं जबकि हमारा दर्शनशास्त्र ही अर्थशास्त्र सहित सारे शास्त्र समेटे रहता है। हमारे दर्शन में करचोरी और भ्रष्टाचार का अलग अलग उल्लेख मिलता है। मजे की बात यह कि हमारे अध्यात्मिक विद्वान ही मानते रहे हैं कि राजकर्मियों में राज्य के धन हरण की प्रवृत्ति रहती है। जब हम धन की बात करते हैं तो स्वच्छ, काले तथा भ्रष्ट धन के प्रति अलग अलग दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से बन जाता है। देश के वर्तमान राष्ट्रवादी कर्णधार नोटबंदी करने के बाद भारी दबाव में आ गये हैं। वह तय नहीं कर पा रहे कि करना क्या है और कहना क्या है? अभी तक राष्ट्रवादियों ने अनेंक आंदोलन चलाये थे जिसमें नारों के आधार पर ही उन्हें प्रतिष्ठा मिल गयी। बीच में उनकी अन्य दलों के सहारे साढ़े छह साल सरकार चली पर अन्य दलों के दबाव में अपने विचार लागू न कर पाने का बहाना करते रहे। अब अपनी पूर्ण सरकार है तो उनकी कार्यप्रणाली में जहां नयेपन का अभाव दिख रहा है तो वहीं सैद्धांतिक विचाराधारा का अत्यंत सीमित भंडार भी प्रकट हो रहा है।  उनका संकट यह है कि अपने समर्थकों को कुछ नया कर दिखाना है पर सत्ता का सुख तो केवल यथास्थिति में ही मिल सकता है।
राष्ट्रवादियों का यह संकट उनके लिये बड़ी चुनौती है पर यह लगता नहीं कि वह इसे पार हो सकेंगे।  नोटबंदी के प्रकरण को मामूली नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस पर बरसों तक बहस चलेगी। राष्ट्रवादियों ने अपनी सरकार भी अपने प्रतिद्वंद्वियों की तरह धन के सहारे ही बनायी और उन्हें उनकी तरह ही धनपतियों को प्रसन्न करना था। राजपदों की गरिमा जो राष्ट्रवादियों में होना चाहिये वह धनपतियों के सामने धरी की धरी रह गयी। अगर अपने अध्यात्मिक दर्शन के प्रति वास्तव में समर्पण होता तो वह राजपद की उस गरिमा के साथ चलते जिसमें राजा हमेशा ही साहुकारों, जमीदारों और व्यापारियों से उपहार के रूप में राशि लेता है पर उनके आगे सिर नहीं झुकाता। इन लोगों को इतना ज्ञान नहीं रहा कि साहुकारों, जमींदारों तथा व्यापारियों की यह मजबूरी रहती है कि वह अपने राजा को बचायं रखें क्योंकि इससे ही उनका अस्तित्व बना रहता है। इसके विपरीत यह तो धनपतियों के आगे इसलिये नतमस्तक हो रहे हैं कि उनका पद बचा रहे।  हमने तो राष्ट्रवादियों की सुविधा के लिये यह लिखा है कि हमें उद्योगपतियों के कालेधन में नहीं वरन् अनिर्वाचित राजपदों पर-सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों-काम करने वालों के भ्रष्ट धन से मतलब है। लगता नहीं है कि राष्ट्रवादी यह भी कर पायेंगे क्योंकि वह भी अपने प्रतिद्वंद्वियों की तरह ही इन्हीं अनिर्वाचित राजपदासीन लोगों के सहारे सरकार चलाते है जो कि उन्हें राज्यसुख नियमित रूप से प्रदान कर अपनी स्थाई पद बचाये रहते हैं। हमारा तो सीधा कहना है कि राष्ट्रवादी अब नोटबंदी के बाद उस दौर में पहुंच गये हैं जहां उन्हें अपने वैचारिक धरातल पर उतरकर आगे बढ़ना ही होगा। पीछे लौटने या वहीं बने रहने का अवसर अब उनके पास नहीं बचा है।
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थकी संवेदनाओं के साथ आनंद की अनुभूति संभव नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख (Thaki Sanwedna ke saath Anand ki Anubhuti Sambhav nahin-HindiThoughtArticle)


                         एक सम्मेलन में आयोजक ने कहा कि ‘आजकल लोग कुछ भी बोलना चाहते हैं। उन्हें उस विषय की समझ नहीं है जिस पर बोलना है इसलिये अन्य विषयों को अनावश्यक रूप से उठाते हैं।’
         हम इस पर चिंत्तन करने लगे।  अनेक विचार आये पर हमें लगा कि उन्हें व्यक्त करना व्यर्थ है।  हमारे समझने से कोई समझेगा नहीं और जिसे समझाना है उसे आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो शिकायतकर्ता है।
            भौतिकता के जाल में आदमी ने अपना ही नहीं अपने परिवार का मन इस तरह फंसा दिया है कि उसमें बौद्धिक विलास की संभावना ही नहीं रहती।  लोग बाहर के विषयों में लिप्त हैं पर उस पर समझ अपनी आवश्यकतानुसार है। इस तरह अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उनके विषय सीमित हो गये हैं जिनमें वह घूमते रहते हैं।  दूसरे के अनुसार अपनी समझ कायम करने की ताकत अब बहुत कम लोगों के पास रह गयी है। जिन विषयों से दैनिक संबंध नहीं है पर उससे जुड़ने की आवश्यकता होगी इसलिये उसका अध्ययन करना चाहिये-यह विचार कोई नहीं करता।  अपना दर्द ही सभी को दुनियां का सबसे बड़ा विषय लगता है।  हमें तो कभी कभी लगता है कि जब दो व्यक्ति आपस में संवाद करते दिखें तो यह समझना नहीं चाहिये कि दोनों एक दूसरे की सुन रहे हैं।  हमें यह अनुभव होने लगा है कि हम अगर किसी से बात कर रहे हैं तो लगता नहीं कि वह सुन रहा है क्योंकि हमारा वाक्य समाप्त नहीं होता सामने वाला शुरु हो जाता है।
        योग साधना के बाद हमने ध्यान तथा मौन की जो शक्ति देखी है उसका अनुभव भीड़ में जाकर करते हैं।  सभी को सुनते हैं। अपनी बात तब तक नहीं कहते जब तक कोई बाध्य न करे।  अब हमने फेसबुक तथा ब्लॉग को अपनी एकाकी अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम बना लिया है जहां हमें राहत मिलती है। लिखने से व्यक्ति की मनोदशा पता लग जाती है।  फेसबुक पर हमें पूरे देश के मनोभाव पता लग जाते हैं। सामान्य विद्वानों की सीमायें और गहन चिंत्तकों की व्यापकता भेद हमारे सामने आ जाता है।  सभी का अध्ययन करने के बाद हमारा निष्कर्ष तो यही निकला कि लोगों ने अपनी संवेदनाओं को बीमार बना दिया है। न वह सुख अच्छी तरह ले पाते हैं न ही दुःख से लड़ने का उनमें माद्दा रहा है। इन बीमार संवेदनओं के साथ अनुभूतियां ज्यादा समय तक जिंदा रखना संभव भी नहीं दिखता।
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Friday, December 02, 2016

राजसी विषयों के निष्पादन में सात्विक नीति नहीं चलती-नोटबंदी पर विशेष हिन्दीलेख (Satwik policy Not may Be apply for Rajsi karma-Hindi Editorial on demonetisation)


जब नोटबंदी का अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक ने समर्थन किया तो हमें आश्चर्य हुआ। इस मामले में जनवादियों से ऐसे तर्कों की उम्मीद कर रहे थे जिनमें तीसरा पक्ष होता। जनहित के विषयों में हमारा कुछ विषयों पर राष्ट्रवादियों तो कुछ पर जनवादियों से विचार मिलता है। हमारा विचार तो प्रगतिशीलों से भी मिलता है पर मूल रूप से हम भारतीय विचारवादी हैं जिसके संदर्भ ग्रंथों में अध्यात्मिक तथा सांसरिक विषयों पर स्पष्ट, सुविचारित तथा वैज्ञानिक व्याख्यान मिलते हैं। इन्हीं के अध्ययन से हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत के लिये न केवल अध्यात्मिक वरन् सांसरिक विषयों में भी जापान, अमेरिका, चीन या ब्रिटेन में से किसी एक या फिर आधा इधर से आधा उधर से विचार उधार लेकर राजकीय ढांचा बनाना एक बेकार प्रयास है। यहीं से हम प्रत्यक्ष अकेले पड़ जाते हैं पर हम जैसे सोचने वाले बहुत हैं-पर कोई एक मंच नहीं बन पाया जिसकी वजह से सब अकेले अकेले जूझते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के समर्थन के बाद जनवादियों के लिये नोटबंदी के विरुद्ध चिंत्तन करने का रास्ता खुल गया था पर उन्होंने निराश किया। उनकी मुश्किल यह रही कि उनके आदर्शपुरुषों चीन के राष्ट्रपति शीजिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी भारत की नोटबंदी का समर्थन कर दिया इस कारण उन्हें अपना चिंत्तन बंद कर दिया और जनता की तात्कालिक समस्याओं को ही मुद्दा बनाकर विरोध करने लगे। भारतीयवादी-कृपया इसे स्वदेशी न कहें-होने के कारण अंतर्जाल पर हमारा कोई समूह नहीं है मगर करीब करीब सभी समूहों के विद्वान हमसे जुड़े हैं। भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर हमने जो आठ बरस पहले बातें लिखीं वह आज कही जा रही हैं। हमारे एक अंतर्जालीय मित्र ने हमसे कहा था कि आपके अंतर्जाल पर मित्र कम रहेेंगे पर आपको पढ़ने वाले बौद्धिक जरूर होंगे और आपके विचारों का अनुकरण इस तरह करेंगे कि आपको पता ही नहीं चलेगा। आतंकवाद पर सबसे पहले हमने लिखा था कि यह एक व्यापार है और यही आज सभी लोग कह रहे हैं। भ्रष्टाचार से देशभक्ति पर खतरे का प्रश्न हमने उठाया था जिसका बाद में अनेक लोगों ने अपने नाम से प्रचार करते हुए उठाया। आज नोटबंदी के दौर में ऐसे कई प्रश्न हमारे दिमाग में आ रहे हैं जिनका उत्तर मांगना है पर हमारी बात अपनी जगह तक पहुंचेगी उसमें समय लगेगा। हम जिन खतरों को अनुभव कर रहे हैं जनवादी उन्हें क्यों नहीं अनुभव कर रहे हैं? यह प्रश्न भी आता है।
नोटबंदी के बाद ऐसा कोई दिन नही रहा है जब एटीएम की लाईन में हम न लगे हों। एक दिन बैंक की लाईन में भी जाकर देखा। सभी दिन पैसा नहीं निकाला क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य इन पंक्तियों में खड़े होकर उस जनमानस को देखना था जो बाद में एक समाज बन जाता है। हमें उनकी तात्कालिक मुद्रा की आवश्यकता नहीं देखनी थी क्योंकि वहां हर आदमी इसी कारण आया था। हमें देखना था कि आखिर उसकी मानसिकता क्या है? वह इस समस्या स जूझने बाद कौनसे परिणाम की कल्पना कर रहा है? यह भी बता दें कि हमने सड़कों पर ऐसे भी लोग देखे जिनको नोटबंदी की परवाह नहीं थी। उससे बात कर कोई निष्कर्ष नहीं निकलना था। सभी लोग इस पर खुश थे। हमें तो उन पंक्तियों में अपने लिये चिंत्तन सामग्री ढूंढनी थी। अखबार और टीवी के समाचार भी पढ़े और देखे पर हमें त्वरित समस्याओं से ज्यादा भविष्य की तरफ देखना है। हम इस दौरान प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ रहे थे क्योंकि वह तो समय देगा पर कुछ चेतावनियों का अनुभव हुआ और वह बहुत डरावनी लगी रहीं हैं।
हम भारतीय हैं। हमें विश्वगुरु कहा जाता है। यह पदवी केवल पूजा पाठ की वजह से नहीं वरन् एक ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण जीवन शैली के कारण मिली है। हमारे पास अपना अर्थशास्त्र है तब जापान, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन के यशस्वी विचाराकों के सिद्धांतों को उधार लाने की जरूरत क्यों हैं? हम विकास का वह स्वरूप क्यों चाहते हैं जो जापान या चीन का है? जब हम चीन, जापान, अमेरिका या ब्रिटेन की तरह बनना चाहते हैं तो हमें यह भी क्या यह नहीं देखना चाहिये कि हमारा राज्य प्रबंध तथा समाज कैसा है? मूल बात यह कि हमारे देश के नागरिक क्या चाहते हैं?
नोटबंदी कर नागरिकों को सुखद भविष्य का सपना दिखाया गया है। सब जानते हैं कि इसके आगे भी काम किये बिना सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं होगा। कहा गया कि आतंकवादियों के पास धन की कमी हो जायेगी। जिस तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार है उसके चलते यह संभव नहीं लगता। जब मुद्रा वितरण से जुड़े लोगों पर ही काला धन सफेद करने को आरोप लग जायें तब क्या उनसे यह आशा कर सकते हैं कि वह आतंकवादियों को वही सुविधा नहीं देंगे? कश्मीर में कुछ दिन आतंक थमा रहा पर आतंकियो पास जब दो हजार के नोट पहुंच गये तो फिर वही क्रम शुरु हो गया है। नोटबंदी के बाद पंजाब में भी एक जेल टूट गयी जिसमें भ्रष्टाचार एक हथियार बना। मतलब आतंक और भ्रष्टाचार पर नकेल का दावा तो तात्कालिक रूप से निष्फल हो गया। अब जनमानस जैसे ही अपनी समस्या से निजता पायेगा तो वह सवाल करेगा। वह इधर उधर देखेगा। जब सब पूर्ववत मिलेगा तो उसके अंदर एक भारी निराशा पैदा होगी। यही निराशा क्रोध का रूप भी लेगी। उसके पास करने के लिये ज्यादा कुछ नहीं पर समय आने पर वह अपने मत से सब बता देगा। संभव है कि लोकप्रियता के शिखर पर जो लोग हैें उन्हें खलनायक करार दिया जाये। नोटबंदी के बाद कर्णधारों के पास पीछे लौटने का अवसर नहीं है और उन्हें आगे बढ़कर अपनी प्रहारशक्ति दिखानी होगी। खड़े या यहीं बैठे रहने का भी अवसर अब निकल गया है।
सबका साथ सबका विकास का नारा अच्छा है पर याद यह भी रखें कि जो साथ दें उनका ही विकास हो-जिन्हें नहीं चाहिये उन्हें दूध में मक्खी की तरह अपने पास से हटा दें। यह राजसी नीति है इसमें सात्विक सिद्धांतों को कोई मतलब नहीं है।
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नोट-इसी ब्लॉग पर नोटबंदी पर आगे भी लेख आयेंगे।


Saturday, November 26, 2016

कास्त्रो की मौत से क्यूबा आजादी की सांस ले पायेगा या नहीं-हिन्दी संपादकीय (Cuba May be Possible Freedom of Espression After Death of FidelCastro

                      क्यूबा का तानाशाह फिदेल कास्त्रो स्वर्ग सिधार गया।  हमारी दृष्टि से वह दुनियां का ऐसा तानाशाह रहा जिसने सबसे लंबी अवधि तक राज्य किया। वामपंथी विचाराधारा का प्रवाह ऐसे ही लोगों की वजह से हुआ है जो यह मानते हैं कि दुनियां के हर आदमी की जरूरत केवल रोटी होती है-कला, साहित्य, फिल्म और पत्रकारिता में स्वतंत्रता की अभियक्ति तो ऐसे तानाशाह कभी नहीं स्वीकारते।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि मनुष्य तथा पशु पक्षियों की इंद्रियों में उपभोग की प्रवृत्ति जैसी होती हैं, अंतर केवल बुद्धि का रहता है जिस कारण मनुष्य एक पशु पक्षी की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक रूप से संसार में सक्रिय रहता है।  वामपंथी मानते हैं कि मनुष्य की इकलौती जरूरत रोटी होती है उसे वह मिल जाये तो वही ठीक बाकी बाद की बात उसे सोचना नहंी चाहिये वह तो केवल राज्य प्रबंध का काम है। इसके बाद वामपंथी शीर्ष पुरुष सारे बड़े पद हड़प कर प्रजा को बंधुआ बना लेते हैं।
वामपंथी तानाशाह मनुष्य को पशु पक्षियों की तरह केवल रोटी तक ही सीमित देखना चाहते हैं। वाणी की अभिव्यक्ति प्रतिकूल होने पर वह किसी की हत्या भी करवा देते हैं।  कास्त्रो एक खूंखार व्यक्ति माना जाता था।  हमारे  देश के वामपंथी विचाराकों का वह आदर्श है।  यह अलग बात है कि उसके मरने के बाद अपने ही देश के लोगों पर किये गये अनाचार की कथायें जब सामने आयेंगी तब वह उसे दुष्प्रचार कहेंगे। कास़्त्रों ने क्यूबा को एक जेल बनाकर रखा था। उसके राज्यप्रबंध की नाकामियों से ऊबे लाखों शरणार्थी अमेरिका जाते रहे हैं।  हम उम्मीद करते हैं कि कास्त्रो की मौत के बाद क्यूबा एक ताजी आजादी की सांस ले सकेगा।
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Thursday, November 24, 2016

एटीएम अपडेट होने पर नोटबंदी से पैदा मंदी खत्म हो जायेगी-हिन्दी संपादकीय (bazar woulld Standup After ATM UpDate-HindiEditorial)

                            जरूरतें समाप्त नहीं होने वालीं और वह व्यापार चलाती हैं।  जितनी इस समय मंदी है उतनी ही कुछ समय बाद तेजी आयेगी। वैसे पैसा वही लोग रोक रहे हैं जिन्हें सौ रुपये एटीएम से मिले हैं। जब सभी एटीएम अपडेट हो जायेंगे और उसमं से पांच सौ और दो हजार के नोट निकलेंगे तब झख मारकर लोग खर्च करेंगे।  कुछ लोगों ने हमारे साथ बातचीत में माना कि हां पांच सौ और दोहजार रुपये के नोट निकल रहे हैं उन पर भीड़ शहर के मुख्य स्थानों  के एटीमों से ज्यादा हैं-वहां के एटीएम अपडेट हो गये हैं। वह पांच सौ और दो हजार के नोट निकल रहे हैं। हमारा अनुमान है कि एक दिसम्बर के बाद बाज़ार में रुपया तेजी से आयेगा और पुरानी मंदी की भरपाई करते हुए तेजी आयेगी।
                नोटबंदी पर उत्पात की संभावना त्वरित रूप से थी जो खत्म हो गयी है। अब अगर कहीं होता है तो वह कालेधन वालों से प्रायोजित व उनके उनके बौद्धिकों से प्रेरित माना जा सकता है। हमने अपने शहर का दौरा  किया। बाहर रहने वाले मित्रों से बात की।  परेशानी है पर कहीं खर्च का संकट नहीं है। आज सरकार ने पता नहीं कौनसा दाव खेला कि लाईने बीस फीसदी रह गयी।  शायद यह अपने ही बैंक में नोट बदलने तक सीमित रखने  या केवल वरिष्ठ नागरिकों को नोट बदलने की सुविधा देने के निर्णय का परिणाम था कि लाईन एकदम कम हो गयी इसका पता नहीं। एटीएम पर अधिकतर लोग ऐसे मिले जो पहले निकाल चुके थे। इनमें तो कुछ ऐसे थे जो आज ही पहले से कहीं निकलवाकर आ गये तो उनका एटीएक कार्ड काम नहीं कर रहा था।  लोगों में न उत्साह है न उकताहट।  ऐसे में एक बासी हो चुके फैसले पर किसी कठोर प्रतिक्रिया की संभावना नहीं है। 
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Wednesday, November 23, 2016

कौटिल्य और चाणक्य के ज्ञान बिना अर्थशास्त्र-लघु हिन्दी व्यंग्य (What Econmics without Kautilya and chanakya-Hindi Short Satire


                          देश के कुछ बड़े अर्थशास्त्री यह सोचकर परेशान है कि नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला उनसे पूछे बगैर ले लिया।  वैसेे हमारे देश में अनेक लोग अर्थशास्त्र पढ़ते हैं पर जिनको कोई बड़ा ओहदा मिलता है तो उनको ही अर्थशास्त्री की पदवी  संगठित प्रचार माध्यम देते हैं। जैसे हम हैं। वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त करने में हमें अर्थशास्त्र से दो चार होना पड़ा था।  लेखक होने के नाते हमें अर्थशास्त्री  मानना चाहिये पर कोई बड़ा पद नहीं मिला तो कोई मानना तो दूर हमारी कोई बात सुनता भी नहीं।  नोटबंदी हमने खूब अंतर्जाल पर लिखा पर कहीं कोई संदेश हिट नहीं हो पाया।  वजह साफ है कि कोई बड़ा पद नहीं मिला जिससे लोग हमको गूगल पर ढूंढते। 
               अब कहना तो नहीं चाहते पर सच यह है कि भारत में इतने पढ़ेलिखे अर्थशास्त्री हुए पर कुछ नहीं कर पाये। देश में गरीबी, भ्रष्टाचार और बेईमानी बढ़ती रही। आधारगत ढांचा-बिजली, पानी और आवागमन के लिये सड़कें पूरी तरह से बनी नहीं। बहुत पहले इस पर राजनीतिक चर्चाओं में मशगूल रहने वाले  एक चायवाले ने हमसे कहा था कि ‘ऐसे पढ़े लिखे अर्थशास्त्रियों से हम अच्छे हैं जो बड़े पदों पर बैठकर भी देश की असली समस्याओं का निराकरण नही कर पा रहे। मुझे बिठा दो पूरे देश का उद्धार कर दूं।’
          वह चायवाला इतनी अच्छी चाय बनाता था कि नगर निगम और जिला कार्यालय के अधिकारी तक उसके यहां चाय पीने आते थे। यह अलग बात है कि अतिक्रमण विरोधी अभियान के चलते उसकी गुमटी उठाकर फैंक दी गयी तब उसने दूसरी जगह जाकर लस्सी की दुकान खोली।  हमने हमेशा उसे प्रसन्नचित्त देखा। वह लस्सी के व्यापार में भी हिट रहा। उसकी राजनीति टिप्पणियों से हम सदा प्रभावित रहे।  उसके व्यवहार से हमने सीखा था कि जागरुक तथा विद्वान  होने के लिये पढ़ालिखा होना जरूरी नहीं है।  जो अपना व्यापार चला ले वह देश को भी चला सकता है। यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि नोटबंदी के विरोधी भी केवल गरीबों, किसानों और मजदूरों की परेशानी की आड़ लेकर जूझ रहे हैं।  यहां तक कि जनवादी भी अपना पुराना रोना रो रहे हैं। विरोध में कहने के लिये उनसे ज्यादा तो हमारे पास ज्यादा भारी भरकम तर्क हैं पर हम इंतजार कर रहे हैं कि आखिर यह नोटबंदी देश में किस तरह का परिणाम देती है।
                  वैसे भी अपने यहां कौटिल्य तथा चाणक्य जैसे अर्थशास्त्री हुए है। यकीन मानिये उनमें से किसी ने एडमस्मिथ और माल्थस को नहीं पढ़ा था जिसे पढ़कर आज के अर्थशास्त्री अपने श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। वैसे हम स्वयं को संपूर्ण अर्थशास्त्री मानते हैं क्योंकि हमने एडमस्मिथ, माल्थस के साथ कौटिल्य तथा चाणक्य का अर्थशास्त्री भी पढ़ा है। हमारा मानना है कि देशी अर्थशास्त्र समझने वाला ही देश का भला कर सकता है और वह कोई मजदूर भी हो सकता है और कारीगर भी।

Thursday, November 03, 2016

आत्महत्या करने वाला कभी समाज नायक नहीं होता-हिन्दीेलेख (Suicider not be Hero For Society-Hindi Article)

                   एक पूर्व सैनिक ने वन रैंक वन पैंशन को लेकर आत्महत्या कर ली।  इसको लेकर देश में तमाम तरह का  विवाद चल रहा है। हमारा मानना है कि चाहे कुछ भी इस विषय को  सरकार के विरुद्ध आंदोलन से जोड़ना गलत है क्योंकि इसके पीछे घरेलू, सामाजिक तथा आर्थिक कारण अधिक जिम्मेदार हैं जिसकी चर्चा पुरुष बहुत कम लोग करते हैं-इस भय से कि उनके बेकार या कमाऊ न मान लिया जाये। हमने अपने सेवानिवृत्त साथियों से चर्चा की। उन्होंने एक पैंशनधारी के अधिक राशि की मांग लेकर आत्महत्या के प्रकरण को वैसा मानने के लिये तैयार नहीं है जैसा कि बताया जा रहा है।  सबसे बड़ी बात आप सेना की छह वर्ष क नौकरी पर जिंदगी पर इतना निर्भर नहीं रह सकते जितना सोचते हैं।  यहां पैंतीस से चालीस वर्ष नौकरी करने वाले भी हैं वह जानते हैं कि सभी को एक जैसी पैंशन इसलिये भी नहीं मिल सकती है क्योंकि नौकरी की अवधि अब मायने नहीं रखती पर अंतिम वेतन का महत्व भी नकारा नहीं जा सकता।  पांच वर्ष पूर्व नौकरी छोड़ने वाला आज नौकरी छोड़ने वाले जितनी पैंशन नहीं पा सकता-प्रोत्साहन के रूप में कुछ रकम बढ़ायी जाये यह बात अलग है। एक अन्य फेसबुक पर हमारे सेवानिवृत साथियों ने आत्महत्या करने वाले पैंशनधारी का समर्थन करने से इंकार तक किया है।
                  वर्तमान सरकार पर जवानों या कर्मचारियों के प्रति उदासीनता का आरोप लगाना गलत है।  पिछली सरकारों ने वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर अच्छा एरियर इसलिये दिया क्योंकि वह देर से लागू की गयीं-उसमें भी पुराने भत्तों का एरियर नहीं दिया गया था। इस सरकार ने तत्काल वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू की इसलिये एरियर अधिक नहीं दिया। भत्तों पर विवाद की वजह से अभी पुराने वेतनमान से दिया जा रहा है और जल्दीउसका निर्णय भी हो जायेगा।  ठीक है भत्ते कुछ देर से मिलेंगे पर उनका एरियर भी तो मिलेगा।  जबकि पहले नहीं मिलते थे।  पैंशन से पूरा घर नहीं संभल सकता पर पति पत्नी तो सहजता से पल जाते हैं-यही पैंशन देने का मकसद है।  इससे आगे की जिम्मेदारी सरकार पर डालना गलती है।  किसी की पैंशन इतनी कम नही है कि वह आत्महत्या करे ओर सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाये।
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Sunday, October 16, 2016

भारत को अपनी हिन्दू छवि के साथ आगे बढ़ना होगा-हिन्दी लेख (India Should Go ahead with his Hindu Imege-HindiArticle & Editorial)


अमेरिका में राष्ट्रपति के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि ‘मैं हिन्दू तथा भारत का प्रशंसक हूं।’ विश्व के किसी बड़े विदेशी नेता ने ‘हिन्दू’ शब्द से प्रेम का जो प्रदर्शन किया है उससे अनेक लोगों की छाती पार सांप लौट जायेगा। वैसे आज तक हमने किसी भारतीय नेता के मुख से नहीं सुना कि वह हिन्दू धर्म का प्रशंसक है इसलिये डोनाल्ड ट्रम्प के बयान ने चौंका दिया-हालांकि वह सीधे अरेबिक विरोधी छवि के माने जाते हैं इसलिये हिन्दू धर्म की प्रशंसा का यही अर्थ है कि वह मानकर चल रहे हैं कि दोनों की विचाराधारा में कहीं न कहीं संघर्ष है। भारत में अन्य की तो छोड़िये हिन्दू धर्म की रक्षा का दावा करने वाले राष्ट्रवादी भी यह सच कहने से संकोच करते हैं।
अब हम पाकिस्तान की चर्चा करें। पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर चर्च सुने तो वहां विद्वान स्पष्टतः हिन्दू धर्म के प्रति घृणा व्यक्त करते हैं। अगर हम उनकी तर्कों का विश्लेषण करें तो यह साफ हो जाता है कि भारत के हिन्दू बाहुल्य रहते कभी मित्रता तो हो ही नहीं सकती। पाकिस्तान आतंकवादी देश है कहकर हम बच निकलते हैं पर सच यह है कि वह हिन्दू विरोधी विचार का संवाहक है। वह आतंकवाद को संरक्षण इसलिये देता है कि हिन्दू बाहूल्य भारत को तबाह किया जा सके। भारत के नेता यह सच बताने में डरते हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ हिन्दू धर्म का भी बैरी है। वह कश्मीर पर कब्जा इसलिये करना चाहता है कि वहां हिन्दू जनसंख्या कम है-इतना ही नहीं आतंकवाद के प्रवाह के चलते वहां से पंडितों का सामूहिक पलायन भी हुआ। हैरानी इस बात की कि आज भी हिन्दूत्व के रक्षक पंडितों की वापसी के बिना कश्मीर समस्या के हल की बात नहीं कह पाते।
हमारा मानना है कि वह हिन्दू हिन्दू कहकर अमारे पीछे पड़ा है तो फिर हम क्यों पंथनिरपेक्षता की दुहाई देकर अपना मुंह छिपाते हैं। अगर पाकिस्तान का नाम विश्व के पटल से मिटाना है तो हमें भी हिन्दू की तरह दृढ़ता से योद्धा बनकर उसे न केवल अस्त्र शस्त्र वरन् शास्त्र के ज्ञान से उसके सामने खड़ा होगा। इतना ही नहीं चीन को भी यह समझाना होगा कि बौद्ध बाहुल्य होने के कारण हम उसके प्रति सद्भाव रखते हैं-यह तभी संभव है जब हम हिन्दू छवि के साथ उसके साथ व्यवहार करें।
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एक सच्चा हिन्दू वैश्विकवादी होता है जो भक्ति भाव से समाज के लिये निष्काम भाव से काम करता है। वह संकीर्ण विचार का नहीं होता। हिन्दू हमेशा ही अपने जीवन में संघर्ष तथा समाज के लिये कल्याण के लिये तत्पर रहता है। वह स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करता।

Monday, October 10, 2016

भारत की शक्तिमान छवि से चीन की बौखलाहट सामने आने लगी-हिन्दी संपादकेीय( China feel Tension form Powerful Imege of India-Hindi Editorial)

                                        चीन का यह कहना कि आतंकवाद की लड़ाई का राजनीतिक लाभ नहीं लेना चाहिये-अब समझ आ गया कि जब पाकिस्तानी हरकतों का जवाब पहले भारतीय सेना देती तो उसका प्रचार किसके दबाव में क्यों नहीं किया जाता था? मतलब यह कि जनता के खून पसीने की कमाई से जो सेना ताकतवर हो रही है उसका प्रचार कर देश का मनोबल न बढ़ाओ।  वह हमेशा सहमी सहमी चीनी सामानों को खरीदती रहें। इतना ही नहीं भारतीय जनमानस का मनोबल इतना गिरा रहे कि वहां वामपंथ तथा उग्र अरेबिक विचाराधारा का मुकाबला करने वाले विद्वान आगे न आयें।  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा में पूरे विश्व का बौद्धिक परिवर्तन की संभावनायें रहती हैं जिससे वामपंथी और अरेबिक विचारधारा के विद्वान बहुत डरते हैं। हमारा मानना है कि सरकार ने अच्छा किया कि उरी हमले का बदला लेने का जमकर प्रचार किया।  भारत की एक ताकतवर छवि बनने से त्रस्त चीन का बौखलाना अच्छा लग रहा है।
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                 पाकिस्तान के बारे में देश का बुद्धिमान समूह भ्रमित रखता है। वहां सज्जन से सज्जन आदमी भी हिन्दूओं से दोस्ताना निबाहने की बात ऐसे कहता है जैसे कि पराये हों-उसकी नज़र में हिन्दू दोयम दर्जे का इंसान है।  पता नहीं इन बुद्धिमानों को यह समझ में क्यों नहीं समझ में आ रहा है कि वहां के जनमानस में हिन्दूओं को मिटते देखने का विचार रहता ही है।  अरेबिक विचारधारा, कथा साहित्य, तथा महापुरुषों के अलावा संसार में कुछ भी अच्छा नहीं है।  उर्दु शायरों की क्षणिक आवेश में रची गयी शायरियां उनका दर्शन है।  हमने तो वहां के टीवी चैनलों को देखकर मान लिया है कि भारत पाकिस्तान में दोस्ताना संबंध इस प्रथ्वी पर युग परिवर्तन से पूर्व संभव नहीं है। कथित रूप से निरपेक्ष विद्वान अगर पेशेवर लाभ के लिये यह सपना दिखा रहे हैं तो ठीक है पर अगर स्वयं भी उसका शिकार है तो उन्हें बचना चाहिये।
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                               19 जवानों की शहादत! जवाबी कार्यवाही! बहस में ढेर सारे विज्ञापन! जवाब पूरा नहीं होता कि ब्रेक! फिर एक सवाल कि फिर ब्रेक! अगर इसी तरह पाकिस्तान पर हर महीने एक कार्यवाही हो जाये तो प्रचार जगत को सनसनी खबरों की जरूरत नही होगी।
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               दो भारतीय जवानों के सिर के बदल पाकिस्तान के तीन सिर काटे गये। अंतर्राष्ट्रीय तौर पर भारत अपनी छवि देखते हुए कभी स्वीकार नहीं कर सकता था, यह सत्य है। पाकिस्तानी तो बद होने के साथ बदनाम है और वह अपनी करतूतों को अराजकीय तत्वों की बताकर छिप जाता है पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार इस तरह सिर काटना अपराध है अतः इस खबर को अब प्रकाशित करने वाले देश का नाम बदनाम कर रहे हैं। 2011 की इस कार्यवाही पर अधिक सरकार नहीं बोल सकती पर उरी के बदले की कार्यवाही पर चाहे जितना डंका पीट सकती है क्योंकि वह अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार सही है।
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Monday, September 26, 2016

नवाज शरीफ का चेहरा पनामालीक्स की वजह से फुंके बल्ब की तरह लगता है-हिन्दी संपादकीय (NawarSharif fece see as fuse Bulbe cause his Name in Panama Leask-Hindi Editorial)

     पनामा लीक्स में नाम आने के बाद नवाज शरीफ का चेहरा फुंके बल्ब की तरह लगता है पर इसे भारतीय रणनीति का दबाव नहीं समझना चाहिये।  उनको एक डर तो राहिल शरीफ से है जिसे चीन उनसे ज्यादा महत्व देता है। दूसरा संकट इमरान खान है जो भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चा खोले हुए हैं।  पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर अनेक वक्ता अपने प्रधानमंत्री की कमजोरी पर कटाक्ष करते हैं कि ‘वह तो धंधेपानी वाला आदमी है क्या हिन्दुस्थान से लड़ेगा।’
                                        अलबत्ता संयुक्त राष्ट्र की बोरिंग सभा में निहायत लचर भाषण ने ही नवाज शरीफ को एक नया संबल दिया है क्योंकि पाक टीवी चैनलों ने कश्मीर के एक मरे आतंकी को अपना राष्ट्रनायक घोषित करने पर हाथोंहाथ उठा लिया। नवंबर में सेवानिवृत्ति की लटक रही तलवार से बचने के लिये राहिल शरीफ के पास अभी उन्हें बेदखल करने का अवसर भी नहीं है।  एक तरह से वह आतंकी भारतीय सेना के हाथ से मरकर नवाज शरीफ की आगे प्रधानंमत्री पद पर बने रहने की संभावनाओं को जिंदा कर गया।
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                               वैसे संयुक्तराष्ट्रसंघ में अधिकतर बोरिंग भाषण दिये जाते हैं। इस सभा के समाचारों विश्व के प्रचार माध्यम ज्यादा महत्व नहीं देते।  भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों के भाषण इसलिये ज्यादा प्रचारित होते हैं क्योंकि वह आपसी विवादास्पद मसालों को वहां उठाते हैं।

Friday, September 23, 2016

पाक के विरुद्ध कार्यवाही का समय भारत के हाथ से निकल रहा है-हिन्दीसंपादकीय (Pak ke Viruddha karyavahi ka Samay Bharat ke Hath se nikla rah hai-HindiEditorial

                        तात्कालिक रूप से सैन्य कार्यवाही करने की बात तो किसी ने नहीं कहीं थी।  अब तो वह देर बाद भी संभव नहीं लगती। पानी रोकते या नहीं पहले घोषणा तो कर देतें! व्यापार में अत्यधिक प्रिय राष्ट्र का दर्जा पहले छीनने की घोषणा तो कर देतें! जरूरत समझते तो बाद मेें वापस कर देतें। यह घोषणा नहीं की। ऐसा लगता है कि कड़ी कार्यवाही का वक्त भारत के हाथ से निकल रहा है। केवल शाब्दिक जमा खर्च पहले ही तरह ही जारी है।
            दो बातें सामने आयीं। एक टीवी चैनल पर बहस के समय भारत के  एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने बड़ी बात कहीं।  उसने कहा कि पानी के मसले पर तो वह पिछले दस बारह वर्ष से पर्दे की पीछे बातचीत कराता रहा है। पानी रोकने का मतलब यह है कि सीधे युद्ध को निमंत्रण देना। हफीज सईद कह चुका है कि पानी रोका तो हम सीधस हमला कर देंगे। 
               उसकी बात हमने सुनी पर लगता है कि एंकर को ब्रंेक की जल्दी थी वह समझी कि नहीं भगवान जाने।  इन चैनल वालों को अपने व्यवसायिक हित से मतलब है शब्दों के अर्थ समझने से नहीं। अब जब युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं और हम से पाक डरा हुआ है कि हमला कर सकते हैें तब पानी रोकने पर उसके हमले से क्या डरना? ऐसा लगता है कि ऐसे ही लोग पर्दे के पीछे रणनीति को प्रभावित करते हैं। उसकी बात से तो यह लगा कि वह नवाज शरीफ की बजाय हफीज सईद को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। 
               उरी हमले का मामला गर्म था तब रूस ने पाक के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास से मना कर दिया था पर अब उसकी सेना पाकिस्तान पहुंच गयी है। इसका मतलब यह कि रूस से यह मान लिया है कि भारत कुछ करने वाला नहीं है।  अगर उसे अपने निर्णय पर कायम रखना था तो भारत कम से कम पानी रोकने तथा व्यापार मित्र राष्ट्र का दर्जा तो छीन लेना था।  जनता के गुस्से की लीपापोती हो गयी। दो चार दिन में सब ठंडा हो जायेगा। प्रचारमाध्यमों को विज्ञापन पास करने का समय मिल गया। रूसी सेना का पाकिस्तान पहुंचने का सीधा मतलब यह कि अब कुछ होने वाला नहीं है। 26 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र में भारत के जवाबी भाषण पर वाहवाही के बाद सबकुछ थम जायेगा। चार दिन तक पाकिस्तान तथा टीवी के चैनलों पर बहसों का छुटपुट अध्ययन किया तो पाया कि इन्हीं की सुनो अपनी तरफ से कुछ सोचो मत!
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Friday, September 16, 2016

संसार ‘प’ से चले या ‘एम’ से पता नहीं-हिन्दी व्यंग्य (Wolrd and men-HindiSatire)


यह संसार प्राकृतिक नियंत्रक परमात्मा के हाथ में है-ऐसा हमारा दर्शन मानता है। दर्शन के विपरीत भी कुछ विचाराधारायें हैं जिनमें एक मानती है कि यह सारा संसार पूंजीपतियों के हाथ में है। अनेक तरह के अंधविश्वासों तथा भ्रमों के बीच यह एक सत्य है कि इस संसार में मायापतियों का वर्चस्प बना रहता है। पहले मायापतियों का अपने ही क्षेत्र में वर्चस्व होता था पर अब वैश्वीकरण हो गया है। टीवी चैनलों पर अक्सर कहा जाता है कि तीसरा विश्व युद्ध होगा। हम नहीं मानते क्योंकि लगता है कि मायापति अब कला, साहित्य, पत्रकारिता, धर्म, समाजसेवा तथा राज्य प्रबंध के शीर्ष पुरुषों पर प्रभाव रखते है। यह तो पता नहीं कि कितना प्रभाव है पर इतना जरूर दिखता है कि वह इतना जरूर है कि वह अपनी शर्तें मनवा सके।
हिन्दी में कहें तो यह संसार का संचालन अब चार ‘प’-पूंजीपति, प्रचारक, पराक्रमी पद प्रबंधक तथा पतित मनुष्यों और अंग्रेजी में कहें चार ‘एम’-मनीमेकर, मीडिया, मेनैजर, माफिया के ( 4M-MoneyMaker, Media,MenManager and Mafia)संयुक्त उद्यम से ही प्रायोजित हो रहा है। पूंजीपतियों के पास प्रचार का प्रबंधन भी है तो पराक्रमियो के समूह भी उन निर्भर है। इसलिये अनेक बार प्रचार के पर्दे हम समाचार या वादविवाद देखते हैं तो लगता है सह प्रायोजित है। अनेक बार तो यह लगता है कि अनेक पराक्रमी इन पूंजीपतियों के प्रचारपर्दे को सजाने के लिये आपस में पहले द्वंद्व फिर वार्तालाप करने लगते हैं। हमने अनेक पश्चिमी बैंकों की सूची देखी है जिसमें अनेक बड़े देशों के पराक्रमी पद प्रबंधकों के नाम उसमें शोभायमान थे। अतः निष्कर्ष निकाला कि जब यह पराक्रमी अपने ही लोगों के प्रति अविश्वास रखते के अलावा उनका शोषण करते हैं तब उनके इतना नैतिक बल हो ही नहीं सकता कि युद्ध लड़कर अपनी गर्दन फंसायें। पूंजीधारी दिखने में कैसा भी लगे पराक्रमी नहीं हो सकता।
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Po1971 में जनतापार्टी की सरकार बनी थी। उसके एक स्वास्थ्यमंत्री समाजवादी थे। वह अपनी ही सरकार गिराने पर उतारु हो गये। उस समय समाचारों का ऐसा दौर चला कि हर पल उनके आने जाने और मिलने की खबर मिलने लगी। यहां तक कि वह किससे मिलने जा रहे हैं, उसके घर से कितनी दूर उनकी कार है, वह किसके परिसर में दाखिल हो रहे है तथा कितनी देर वहां बैठे आदि समाचार आ रहे थे। उस समय आश्चर्य हो रहा था। अब अनेक बार ऐसे अनेक समाचार आते हैं जिसमें किसी के घर से निकलने, रास्ते में होने, किसी के दरवाजे के अंदर तक पहुंचने फिर अंदर बैठक के समय तक का हिसाब आने लगता है। स्थिति यह हो गयी है कि दो व्यक्ति एक मकान में रहते हैं पर एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने की खबर आने लगी हैं। लड़ाई और प्रेम का यह खेल प्रायोजित है या नहीं पर इतना तय है कि इस खबर के प्रचार में विज्ञापनों का अच्छा समय पास हो रहा है। ऊपर लिखे गये हमारे विचार पुराने हैं और उसका इन नयी घटनाओं से कोई संबंध नहीं है।


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Monday, September 12, 2016

हिन्दी दिवस में पुराने ढोल पर नयी थाप लगेगी-हिन्दी दिवस पर विशेष संपादकीय लेख #Special Hindi Article on Hindi Day Hindi Diwas)14SeptemberHindiDay,


                     हिन्दी दिवस आने वाला है। अपने ब्लॉगस्पाट तथा वर्डप्रेस के ब्लॉगों पर पाठकों की संख्या उन पाठों पर अधिक देख रहे हैं जो हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में लिखी हैं।  इस दौरान पाठकों की संख्या आठ से दस गुना बढ़ जाती है। इसका कारण यह है कि लोग हिन्दी दिवस का  भाषण देने तथा निबंध लिखने की तैयारी के लिये अंतर्जाल पर विचरण करते हैं।  इस दौरान हम देखते हैं कि हिन्दी दिवस पर लिखी गयी हास्य कवितायें सर्वाधिक प्रशंसित होती हैं।  पिछले कुछ दिनों से हमने हास्य कवितायें लिखना कम कर दिया था क्योंकि समय की कमी के कारण अध्यात्मिक के अलावा अन्य विषयों पर लिखना कठिन हो रहा था। सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दी लेखकों के लिये अंतर्जालीय संपर्क बनाये रखने वाला कोई ऐसा समूह नहीं बन पाया जिसमें सामान्य लेखक के लिये कोई प्रेरणा पैदा हो सके।  हमने देखा है कि अनेक नये लोग अंतर्जाल पर हिन्दी में लिख रहे हैं-यह अलग बात है कि इनमें से कई ऐसे लगते हैं जैसे किसी कम पढ़े जा रहे अंतर्जालीय लेखक की रचनायें  उठा कर रख रहे हैं।  हमारी अनेक रचनायें ऐसे ही हमें मिल जाती हैं जिसके बारे में हम यह सोचना पड़ता है कि हमने उसे कब लिखा था। अपना नाम न देखकर हमें दुःख होता है। फिर भी हमारी अपनी फितरत है लिखते हैं पर एक बात तय है कि उन नये लेखकों के मन में कुंठा होती होगी जिन्हें अपनी रचना बेनामी देखने को मिलने।
           पिछले दस साल अंतर्जाल पर हमने हिन्दी को बढ़ते देखा है पर यहां से प्रसिद्धि पाने वाला कोई लेखक अभी जनमानस में नहीं है। जिस तरह देश मेें मजदूर संगठित तथा असंगठित क्षेत्रों के माने जाते हैं वही स्थिति लेखकों की है। संगठित क्षेत्र के लेखकों के पास लिखने से अधिक प्रबंध कौशल होता है जो प्रसिद्धि पा लेते हैं।  राजकीय तथा निजी संस्थायें उनके ही पास है।  असंगठित क्षेत्र के लेखकों को तो कोई पूछता भी नहीं है पर हमने अंतर्जाल पर देखा है कि अनेक स्वांत सुखाय लेखक इनसे कई गुना अच्छा लिखते हैं।  बहरहाल इस हिन्दी क्षेत्र में इसी संगठित क्षेत्र के विद्वान अपना ज्ञान बघारते नज़र आयेंगे।  टीवी चैनलों पर शोर रहेगा। आखिर में इन्हीं टीवी चैनलों  पर अब हिन्दी का भार आ पड़ा है जो आशंका, आशा तथा संभावना जैसे शब्दों का अर्थ ही नहीं जानते-उर्दू में भी उम्मीद, डर तथा अनुमान जैसे शब्द का यही हाल है। अलबत्ता हमारा इस वर्ष यह पहला लेखक है और आगामी दो दिवस इस पर अन्य रचनायें लिखेंगे। यह तो केवल भूमिका भर है।
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-दीपक ‘भारतदीप’-

Monday, August 15, 2016

ओलम्पिक खेल संस्कृति भारत की परंपराओं से एकदम अलग-हिन्दी लेख (Olympic Sports culture difrent with Indian Tredition-Hindi Article on Rio2016)

अगर हम ओलंपिक को देखें तो एक तरह से अलग तरह की खेल संस्कृति है जिसने अनेक रूप  बदले हैं और प्राकृतिक की बजाय वहां कृत्रिम मैदानों का निर्माण हुआ है। हम अपने देश के खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर निराश अवश्य होते हैं पर यह कभी नहीं सोचते कि पश्चिम जैसी व्यवसायिक स्पर्धा की सोच हमारे देश के लोगों की खेलों में तो नहीं है। हो भी तो वैसा वातावरण खिलाड़ियों को नहीं मिलता जैसा कि पश्चिम के लोगों के पास होता है। पश्चिम की खेल संस्कृति हमारे भारत की स्वाभाविक परंपरा से मेल नहीं खाती जिसमेें प्रकृतिक मैदान ही मिल सकते हैं।  जब तक हॉकी प्राकृतिक मैदान पर होती थी हमारे यहां बच्चे इसे खेलते थे।  अब कृत्रिम मैदान ने जनमानस को इससे विरक्त कर दिया। बैटमिंटन, टेनिस तथा अनेक खेल कृत्रिम मैदानों पर खेले जा रहे हैं-जो कि सहजता से उपलब्ध नहीं होते। कृत्रिम मैदानों ने खेलों को अकादिमक रूप दिया है जिसमें सामान्य जनमानस एक दर्शक भर रह गया है।  पहले खिलाड़ी सहजता से आगे बढ़ता था पर अब उसे अकादिमक होना पड़ता है-पहले तय करना पड़ता है कि वह कौनसे खेल में शामिल होगा फिर उसे अकादमी ढूंढनी पड़ती है।
हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर जब हमारे देश के अज्ञानी लोग अपने देश के खिलाड़ियों को हारता और दूसरों को जीतता देखते हैं तो आत्मग्लानि को बोध दिखाते हैं तब उन्हें समझाना पड़ता है। हम चीन की बात करते हैं जो खेलों मेे अमेरिका को चुनौती दे रहा है पर सवाल यह है कि उस जैसी हमारे यहां तानाशाही नहीं है। उसने खेलों में अकादिमक रूप को सहजता से अपनाया है पर उसका श्रेय वहां के राज्य प्रबंध को है जिसकी मानसिकता पश्चिम को हर कीमत पर चुनौती देने की है। वहां की जनता के क्या हाल हैं-इसका विश्व में किसी को पता नहीं। हमारे यहां लोकतंत्र है इसलिये जबरन अकादिमक होना सहज नहीं है।
आज श्रीकांत को बैटमिंटन में खेलते देखा।  जिस मैदान पर वह खेल रहा था उसके बारे में बताया गया कि खिलाड़ी के पसीने की बूंद अगर गिरने पर उसे साफ न किया जाये तो वहां उसी का ही जूता इस तरह चिपक जाता है कि वह गिरकर घायल भी हो सकता है। अनेक बार खिलाड़ी अपना पसीना गिरने पर मैदान साफ कराते हैं। श्रीकांत  ने अकादिमक प्रशिक्षण भी लिया है पर यह सभी नहीं कर सकते। ऐसे में हम सामान्य बच्चों को यह भी तो नहीं कह सकते कि सामान्य मैदानों पर बैटमिंटन न खेलकर अकादमी में जाओ। अतः खेल जीवन में रोचकता तथा रोमांच पैदा करने के लिये हैं-हमेशा विश्व चैंपियन का सपना लेकर खेला नहीं जाता।  ऐसे में जो भी भारतीय ओलंपिक में खेलते हैं उनकी इस बात के लिये ही प्रशंसा की जाना चाहिये कि वह अपनी विपरीत खेल संस्कृति में जाकर भी नाम कमा सके।
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Thursday, July 28, 2016

(Ghar mein hi khol len man Ki pryogshala)

घर में ही खोल लें मन की प्रयोगशाला
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मनुष्य दो शब्दों मन व उष्णा शब्द से बना है। इसका आशय यह है कि इस धरी तरह जितने भी जीवन उसमें सबसे अधिक अग्नि मनुष्य के मन में ही है। मन के बाद माया का खेल शुरु होता है जिसमें मनुष्य पूरा जीवन बिता देता है।
हमारा मन तथा बुद्धि इंद्रियों के वश किस तरह काम करते हैं इसका अनुसंधान अपने ही घर में कर सकते हैं।  हमारे टीवी पर अनेक प्रकार के चैनल आते हैं। मनोरंजन, अध्यात्म, संगीत, कार्टून तथा ज्ञानविज्ञानवर्धक सामग्री प्रसारित करने वाले इन चैनलों को बदल बदल कर हम उसका मन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करें।  हर बार मन में अलग प्रकार का रस पैदा होगा।
समाचार चैनलों को सुनेंगे तो पायेंगे कि संसार में हिंसा, कत्ल तथा अपराध का बोलबाला है। मन में क्लेशपूर्ण विचार तथा बुद्धि में कटु सोच पैदा होती है। संगीत सुनने पर मन मयूर की तरह नाचने लगता है। कार्टून चैनल से मन एकदम बच्चा हो जाता है। ज्ञान विज्ञान की खोज वाले चैनल मन मेें जिज्ञासा का भाव पैदा करते हैं। अध्यात्म चैनल मन को शांत कर देते हैं। किसी भी संत का प्रवचन हो भजन मन में एक अजीब प्रकार की स्थिरता पैदा करता है। हमारे यहां अनेक कथित विद्वान लोग संतों के वैभव, शिष्य समुदाय तथा अन्य राजसी कार्यों पर प्रश्न उठाया  करते हैं पर बाह्य आंखें बंद तथा मन की खुली रखने वाले इनके प्रवचन का लाभ उठाते हैं।  हमें क्या मतलब किस संत का आचरण या व्यवहार कैसा है? हां, सामने पर्दे पर उनके प्रवचन अगर मन को शांति प्रदान करने वाले होते हैं तो हमें लाभ उठाना चाहिये।  आजकल गुरु बनाने के लिये किसी के आश्रम पर जाने की आवश्यकता ही नहीं है। घर बैठे ही किसी को भी गुरु बनाकर शिष्यत्व का आनंद प्राप्त करें।
कहनेे का अभिप्राय है कि भले ही आजकल के भौतिक साधनों के उपभोग को कुछ लोग गलत माने पर अगर सदुपयोग किया जाये तो हमें घर बैठे ही तीर्थस्थानों जैसा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। एक बात याद रखिये इस जीवन में मनुष्य के स्वयं के दृष्टिकोण का ही महत्व है। इसलिये अगर कुछ लोग विद्रोह या परिवर्तन के नाम  पर वर्तमान युग के नकारात्मक पक्ष पर ही ध्यान देते हैं तो उन पर ध्यान देने की बजाय हमें अपने ही मस्तिष्क के द्वार खोलकर मन को उसी राह पर ले जाना  चाहिये जहां सकारात्मक दृष्टिकोण बने।
ओम तत् सत्
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Wednesday, July 13, 2016

लाशों में ढूंढ रहे दुआ-हिन्दी व्यंग्य कविता(Lashon mein DhoonDh rahe Duaa-HindiSatirePoem)


दिल के दरवाजे
बंद कर लिये
प्यार की दस्तक
अब वह कहां सुनेंगे।

संबंध के बिगड़े हिसाब
दोस्त तब वफा के
वादे क्यों बुनेंगे।

कहें दीपकबापू जज़्बात से
जीने की आदत
नहीं रही इंसानों में
लाशों में ढूंढ रहे दुआ
जिंदादिली वह क्यों चुनेंगे।
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Friday, June 24, 2016

धनिकों के सपने-हिन्दी व्यंग्य कविता(Dhanikon ke Sapane-Hindi Vyangya Kavita)


धनिकों ने बना लिये
धरती खरीदकर
स्वर्ग अपने।

छोड़ दिये बाहर
अपने मेहनतकश
धूप में तपने।

कहें दीपकबापू चिंत्तन से
उनका नाता कहां रहता
लगे रहते दिन भर
देखते जो स्वार्थ के सपने।
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Sunday, June 12, 2016

हिंसक तत्वों की पहचान अलग अलग देखने की कोशिश-हिन्दी लेख (Terrorism And Gental Socity-Hindi Article)

                             अमेरिका के फ्लोरिडा के एक क्लब में एक बंदूकधारी ने गोलीबारी की जिसमें 20 लोग मरे तथा 42 हताहत हुए। पुलिस की गोलीबारी में बंदूकधारी भी मारा गया। सीएनएन समाचार चैनल में हमने रात्रिकालीन हलचल के बाद फ्लोरिडा की सुबह भी देखी। ट्विटर पर जाकर वहां के रुझान भी देखे। इस घटना के तीन पहलू बताये जा रहे हैं’-घरेलू हिंसा, घरेलू आतंकवाद तथा अरेबिक धार्मिक आतंकवाद। क्रमशः गोरा, काला अथवा अरेबिक पहचान का बंदूकधारी होने पर इस घटना का रूप तय होगा।
                    विदेशी विद्वानों के दबाव में हमारे यहां भले ही कहा जाता है कि हिंसक तत्व की पहचान धर्म, जाति, नस्ल या भाषा के आधार पर नहीं करना चाहिये पर वहां स्वयं ही विचाराधाराओं के आधार पर ढेर सारे संघर्ष है। यह दिलचस्प है कि फ्लोरिडा में हताहतों की संख्या के आधार वह कुछ विशेषज्ञ बिना जांच के ही धार्मिक आतंकवाद से जोड़ रहे हैं। हमारे यहां सामाजिक जनसंपर्क पर जिस तरह ऐसी घटनाओं पर मतभिन्नता दिखई देती है वैसी अमेरिका में भी दिखाई दे रही है। इस चर्चा से अलग बात यह कि कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर हम भारत में चिंतित रहते हैं वैसी चिंता अब अमेरिका में भी दिखाई दे रही है। इधर एक अपराधिक जांच वाले चैनल को भी हम देखते हैं जिसमें अमेरिका में अकारण तथा शौक से ही अपराध होते हैं जो कम से कम भारत में नहीं दिखाई देते। धारावाहिक कातिलों के किस्से जितने हमने अमेरिका के देखे हैं जो केवल हत्या के लिये हत्या करते हैं, उतने भारत में नहीं सुने। बहरहाल फ्लोरिडा के क्लब में हुआ हमला दर्दनाक है।
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Sunday, May 29, 2016

ध्यान से इंद्रियों का संयमित करें-पतंजलि योग साहित्य (Dhyan and Indiriyan-Patanjali yoga)

पतंजलि योग में कहा गया है कि
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‘श्रोन्नाकाशयोः सम्बंध दिव्यं श्रोन्नम्।‘
हिन्दी में भावार्थ-‘कान व आकाश के सम्बंध में संयम (ध्यान) करने से साधक के श्रोत्र शक्ति दिव्य हो जाती है।’
हम अपनी ही देह में स्थित जिन इंद्रियों के बारे में हम सामान्यतः नहीं जानते ध्यान के अभ्यास से उनकी शक्ति तथा कमजोरी दोनों का आभास होने लगता है। इससे हम स्वतः ही उनके सदुपयोग करने की कला सीख जाते हैं। साधक नासिक, कान, मुख तथा चक्षुओं के गुण व दुर्गुण का ज्ञान कर लेता है तब अधिक सतर्क होकर व्यवहार करता है। जिससे उसके जीवन मित्र अधिक विरोधी कम रह जाते हैं। सच बात तो यह है कि ध्यान से इंद्रियों में स्वतः ही संयम आता है। अगर देखा जाये तो हर मनुष्य उत्तेजना तथा तनाव में स्वयं अपनी हानि इसलिये करता है क्योंकि अपनी ही इंद्रियों के बारे में उसे ज्ञान नहीं होता जो कि स्वच्छंद रूप से विचरण करती हैं।
अत मनुष्य अगर ध्यान की क्रिया अपनाये तो वह इन इंद्रियों की उग्रता को कम कर जीवन में आनंद उठा सकता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Saturday, May 07, 2016

सबीज समाधि से साधक सर्वज्ञ हो जाता है-पतंजलि योग दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेखA Hindi Article based on PatanjaliYogaDarshan)

                         भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में समाधि की स्थिति भक्ति तथा ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति मानी गयी है।  समाधि में होने पर ही व्यक्ति का आत्मा परमात्मा व संसार की भिन्नता का अनुभव होता है। इसके अभ्यास से ही पता चलता है कि हम वह आत्मा है जो शरीर रूपी यंत्र पर सवार हैं। जिस तरह किसी वाहन का कुशल चालक उसे लक्ष्य तक पहुचाता है तो अनाड़ी दुर्घटना कर देता है। योगभ्यासी अपनी देह, मन वह विचारों को शुद्ध कर संसार में सहजता से विचरता हो तो भोगी हमेशा ही तनाव में रहता है। 
पतंजलि योग दर्शन में कहा गया है कि
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-’सत्तवपुरुषान्यतारव्यातिमात्रस्य सर्वभावविधष्ठानतृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चं।।
हिन्दी में भावार्थ-बुद्धि तथा पुरुष इन दोनों में भिन्नतामात्र का ही जिसे ज्ञान होता है ऐसी सबीज समाधि को प्राप्त योगी सब भावों से युक्त सर्वज्ञ हो जाता है।
व्याख्या-हमारे यहां समाधि को लेकर अनेक भ्रम फैलाये जाते हैं। समाधि कोई देह की नहीं वरन् मन की स्थिति है। जब साधक को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उसकी देह में स्थित बुद्धि तथा आत्मा प्रथक हैं तब वह दृष्टा भाव की अनुभूति करता है। वह कुछ करते हुए भी स्वयं को अकर्ता समझता है। इससे उसकी बुद्धि के साथ ही मन पर भी नियंत्रण हो जाता है। ध्यान तथा धारण की क्रिया के दौरान जब साधक की बुद्धि में रजोगुण के साथ ही तमोगुण निष्क्रिय होते है जिससे सतोगुण का प्रभाव बढ़ जाता है। उस समय प्रकृत्ति व पुरुष के बीच भिन्नता का आभास होते ही उसके अंदर ज्ञान ज्योति प्रज्जवलित हो जाती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Saturday, April 23, 2016

कलियुग नहीं अब तो कालयुग चल रहा है-हिन्दी चिंत्तन लेख (Twitter colection on Blogger)


अब गर्मी अपनी पूरी ताकत के साथ धरती के इंसानों पर आग बरसाने वाली है। गर्मी की मार तन तथा मन को जलाती है जिससे विचारों भी राख होने लगते है। अंतर्मन में व्यथा तो बाहर अग्निकथा एक साथ त्रास देती हैं। इधर समाचार चैनल दाल के महंगे होने का शोर मचा रहे हैं-न भी होती है तो हो जायेगी।  वैसे तो कहा जाता है कि ‘कम खाओ, गम खाओ’। गर्मी में यह सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से सही काम करता है।  अलबत्ता पानी जमकर पीने की सलाह दी जाती है पर जलसंकट को देखते हुए पहले सोचना पड़ता है।  देश के 33 फीसदी में भारी जलसंकट है। जहां नहीं है वहां भी सभी जगह समान मात्रा में उपलब्ध नहीं है।
इस समय बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। परिश्रमी हो या अमीर दोनों ही अपनी अपनी स्थितियों के अनुसार इसका शिकार बनते हैं। ऐसे में मध्यम कार्यशील भी धूप छांव के साथ संघर्ष कर जीवन बचाते हैं। हमारी राय है कि स्वयं व परिवार को बचाना है तो सुबह योगाभ्यास करने के साथ ही दिन में समय मिलने पर ध्यान लगाना चाहिये ताकि मान शांति रहे।
इधर गर्मियों में जिस तरह देश में भवननिर्माताओं की ठगी, बेईमानी व धोखाधड़ी की कथायें सामने आ रही हैं उसके बाद यह कहना ही पड़ता है कि कलियुग नहीं अब कालयुग चल रहा है। हैरानी की बात यह है कि अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री गरीबों के कल्याण की बात करते हैं पर जिस मध्यम वर्ग पर मनुष्य समाज का धार्मिक, सामाजिक व सांस्कारिक आधार है उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता।  मध्यम वर्ग के भी अब तीन रूप-उच्च मध्यम, मध्य मध्यम व निम्न मध्यम-दिखते है।  तीनों के सदस्य  अब भारी संकट में है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि भारतीय समाज भारी संकट में क्योंकि उसका आधार स्तंभ मध्यम अस्तित्व का संघर्ष कर रहा है जिसमें उसे अब कहीं से सहायता नहीं मिल रही। जिस तरह भवननिर्माताओं ने अपने ग्राहकों का शोषण किया होता तो भी चल जाता पर उन्होंने तो एक तरह से ठगा है।
कुछ लोग कह रहे हैं कि भवननिर्माताओं पर कार्यवाही के लिये कानून बने। हमारा पूछना है कि क्या ठगी रोकने का कोई प्रावधान संविधान में नहीं है जो इस तरह की बात कर उन्हें बचाया जा रहा है। हम तो यह कहते हैं कि एक तरह से ठगों ने अब हर तरह के व्यापार पर कब्जा कर लिया है जिससे मध्यमवर्ग के लिये अपना जीवन संकटों के पार लगाना कठिन हो रहा है। हमारा विचार है कि मध्यमवर्ग के लोगों के प्रति अब सजग होकर उनकी सहायता करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Thursday, April 14, 2016

पेट भरकर भूखों के लिये बवाल करते-दीपकबापूवाणी (DeepakbapuWani)

चंद पलों की खुशी में जीवन लगा देते, सुख की अनवरत भूख जगा देते।
‘दीपकबापू’ कामनायें खूब मन में पाले, यह अलग बात अपने कर्म दगा देते।।
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कभी जीत कभी हार खेल जारी है, पहले से तय जीत हार की बारी है।
‘दीपकबापू’ पैसे के माहिर खिलाड़ी, कमाते चाहे उन्होंने नीयत हारी है।।
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पेट भरकर भूखों के लिये बवाल करते, अपनी रोटी छिनने से दलाल डरते।
‘दीपकबापू’ समाज का ठेका लेकर, सात पुश्तों के लिये घर में माल भरते।।
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सब जानते दिया तले अंधेरा होता, सामने लगी तस्वीर पीछे खाली होता।
‘दीपकबापू’ दौड़े दौलत की राह, देह के शत्रु बाग का जैसे माली होता।
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बाहर भीड़ में लगाते जोरदार नारे, कमरे के अंदर महफिल सजाते सारे।
‘दीपकबापू’ चतुरों के प्रशंसक बहुत, रोज धोखा खाते लोग नसीब के मारे।।
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धर्म बढ़ाने के लिये उन्हें धन चाहिये, समाज बचाने के लिये चंदा चाहिये।
‘दीपकबापू’ भरोसे का बाज़ार लगाते, मु्फ्त सौदे की भी कीमत चाहिये।।
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एतिहासिक योद्धाओं जैसा होने की चाहत, कर देती दिल दिमाग आहत।
‘दीपकबापू’ लगवाते नारे अपनी जय के, बरसों से बेबस ढूंढ रहा राहत।।
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भाषण में नारों से दिल बहलाते, राशन न मिलने का दर्द भी सहलाते।
‘दीपकबापू’ शब्द खाते अर्थ पी जाते, बक्ता जो बकें श्रेष्ठ वही कहलाते।।
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बहुत है घाव पर नमक छिड़कने वाले, बहुत हैं चेहरे काली नीयत वाले।
‘दीपकबापू’ फंसाये सोच मतलब में, परोपकारी की उपाधि गले में डाले।।
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आम आदमी अपना दर्द स्वयं झेले, नया भूल पुराने खिलौने से खेले।
‘दीपकबापू’ कभी बने छोटे कभी खास, हर सवाल पर जवाब मौन ठेले।।
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सोचें दिमाग से दिल की बात करें, इश्क के नाम इज्जत पर घात करें।
‘दीपकबापू’ नयेपन का ओढ़ा लबादा, फिर भी पुरानी आदतें मात करें।।
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जल्दी बदलता परिधान का प्रचलन, अपना पुराना देख होती जलन।
‘दीपकबापू’ पोतकर चमका बूढ़ा चेहरा, नयी जवानी का यही चलन।।
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पेट में खाना भरें कि पचे नहीं, घर में सामान इतना कि जचे नहीं।
‘दीपकबापू’ भरे ढेर सपने दिमाग में, तंग सोच से लोग बचे नहीं।।
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ज्ञान की तिलक पहचान नहीं होता, मतलब से मिला मान नहीं होता।
‘दीपकबापू’ निहारते गुलाब की तरफ, कांटों का उसे भान नहीं होता।।
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माया की कृपा भी डर से छिपातेहैं, लोग लूट को कमाई दिखाते हैं।
‘दीपकबापू’ सिद्धांत टांगे दीवार पर, पीछे अपनी अनैतिकता छिपाते हैं।।
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अन्न जल का मोल समझे लोग कहां, अपनी आंखें गढ़ाते सोना दिखे जहां।
‘दीपकबापू’ थाली लोटा सजा जब सामने, भूख प्यास पर अच्छी बहस हो वहां।।
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वादे करने का सिलसिला नहीं टूटता, बदले चेहरे तो भरोसा नहीं टूटता।
‘दीपकबापू’ अपनी करनी की सजा भोगते, राजा या रंक कोई नहीं  छूटता।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, March 13, 2016

किताब में अक्षर अधिक ज्ञान कम है-दीपकबापूवाणी (Kitab mein Akshar adhik Gyan kam hai-DeepakBapuWani)

न अखबार पढ़ा न पर्दे पर दृष्टि डाली, सुबह कितनी शांत चिंता से खाली।
‘दीपकबापू’ अंतर्मन में झांकते जब भी, खबरों से बेखबर हो प्रसन्नता पाली।।
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मस्तिष्क का नहीं हृदय से नाता, हर कोई लालच में फंस जाता।
‘दीपकबापू’ सोच का दायरा सिमटा, संसार गम अपने जताता।।
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देह दिखे दिमाग की नाप कैसे करें, धवल या काली छाप कैसे भरें।
‘दीपकबापू’ बुद्धिमानों की भीड़ में खड़े, पता नहीं बोलें कि शोर करें।।
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वह शब्दों के पहले दाम तोलते, पूरा शुल्क लेकर ही वाक्य बोलते।
‘दीपकबापू’ खडे विद्वान बाज़ार में, सौदे में सिद्धांत का रस घोलते।।
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मृत्यु सत्य है फिर भी पाखंड होते हैं, ख्यालों के साथ लाश ढोते हैं।
‘दीपकबापू’ जिंदगी धन प्रतिष्ठा से ऊबे, ज्यादा सुख से निराश होते हैं।।
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किताब में अक्षर अधिक ज्ञान कम है, वाणी में शोर अधिक नहीं दम है।
गणित ज्ञाता बने व्याकरण विशेषज्ञ, ‘दीपकबापू’ भाषा के भाव नम हैं।।
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दावा सभी का जानते धर्म का मर्म, शब्द के सौदे में नहीं आती शर्म।
‘दीपकबापू’ कोई शस्त्र कभी पढ़े नहीं, वही सर्वगुणी करते सभी कर्म।।
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गरीब का दर्द मिटाने निकलते नायक, दवा के नारे लगाते बनकर गायक।
शुल्क लेकर संवेदना बाज़ार में सजाते, ‘दीपकबापू’ सच के नहीं सहायक।।
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 आगे कागजी बुत पीछे काले चरित्र खड़े, कायर वीर दिखते रोकर बड़े।
‘दीपकबापू’ विज्ञापन युग के पाखंडी, तस्वीरों में ही आदर्श की जंग लड़े।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, March 05, 2016

आत्मकुंठा से हो रहा है मनुस्मृति का विरोध-हिन्दी चिंत्तन लेख(ManuSmriti is A Great Knowledgeble Book-Hindu Thought Article)

यह अजीब लगता है कि मनुस्मृति का विरोध का नेतृत्व भी  भारतीय समाज के उस उच्चवर्ण  के लोग ही कर रहे हैं जिन्हें सम्मानीय माना गया है। यह तर्क भी अजीब है कि उसमें दलित समाज के लिये कमतर संज्ञा दी गयी है। इस लेखक की चर्चा कथित जनवादियों से कभी होती रही थी।  वह सभी उच्चवर्ण के थे। वह सभी मनुस्मृति के इतने विरोध में विचार व्यक्त करते थे कि उसे जलाने की भी इच्छा उनकी थी।  इस लेखक ने तब तक मनुस्मृति का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था कि उसके आलोचकों को जवाब दिया जा सके।  इधर जैसे जैसे मनुवाद का विरोध बढ़ता जा रहा है तब उसका विश्लेषण करने पर यह समझ आ रहा है कि कुछ कथित पेशेवर विद्वान नहीं चाहते कि जीवन के सत्य से आमजन अवगत हों ताकि उनका जनकल्याण, गरीब उद्धार तथा बेबस की मदद का पाखंड चलता रहे।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रतिकेय द्विजे।
न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मचित्।।
हिन्दी में भावार्थ-धर्म के आधार पर ऐसे विद्वान को पानी तक नहीं पिलाना चाहिये जो दूसरों को मूर्ख बनाता है। ऊपर से साधु दिखने वालों का चित्त ज्ञान से रहित होता है।
हैरानी तो इस बात की है कि भारतीय धर्म के अनेक प्रचारक भी मनुस्मृति की चर्चा से बचते हैं। मनृस्मृति में यह स्पष्ट लिखा गया है कि धर्म के नाम पर लोभ की प्रवृत्ति से काम करने वालों को कतई संत न माना जाये। इतना ही नहीं जिन लोगों को वेद के ज्ञान के साथ ही उस पर चलने की शक्ति नहीं है उन्हें न तो विद्वान माने  न उन्हें दान दिया जाये। हमने देखा है कि विद्वता के नाम पर पाखंड करने वाले लोग अधिकतर उच्च वर्ग हैं और मनुस्मृति में जिस तरह भ्रष्ट, भयावह तथा व्याभिचार के लिये जो कड़ी सजा है उससे वह बचना चाहता है।  खासतौर से राजसी कर्म में लिप्त लोग भ्रष्टाचार, भूख, भय के साथ अन्य समस्याओं से जनमानस का ध्यान हटाने के लिये पुराने ग्रंथों को निशाना बना रहे हैं जिसमें भ्रष्ट, व्याभिचार तथा अन्य अपराधों के लिये कड़ी सजा का प्रावधान हैं।  मनुस्मृमि की वेदाभ्यास में रत ब्राह्ण, समाज की रक्षा में रत क्षत्रिय, व्यवसाय में रत व्यापारी तथा इन तीनो की सेवा करने वाला सेवक जाति का है। इन्हीं कर्मों का निर्वाह धर्म माना गया है।  स्पष्टतः जन्म से जाति स्वीकार नहीं की गयी है। लगता है कि मनुस्मृति के विरुद्ध प्रचार किन्हीं सिद्धांतों की बजाय आत्मकुंठा की वजह से की जा रही है। 
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Sunday, February 14, 2016

भारतीय समाज अब भी चेतनावान है (bhartiy samaj ab bhi chentawan hai)

              जवाहरलालनेहरुविश्वविद्यालय में हुए देशविरोधी प्रदर्शनों से एक बात साफ हो गयी है कि प्रगति व जनवादी विचारधारा के ध्वजवाहक भयानक रूप से कुंठित हैं। प्रगतिशील  व जनवादी विचारधारा के यह नये जमूरे देश में वर्तमान प्रबंध व्यवस्था में शामिल विपरीत दृष्टिकोण वाले लोगों को विरोधी नहीं शत्रु मान रहे है। इनकी कुंठा इतनी भयानक है कि आतंकवादी उन्हें सेनानी और आत्मघाती शहीद लगते हैं। वह अहंकार और अज्ञान के ऐसे वैचारिक अंधेरे में जी रहे हैं जिससे उनका निकलना मुश्किल है।
                        अध्यात्मिक विचाराधारा होने के कारण हमें प्रगतिशील व जनवादी विचारकों के चिंत्तन में कोई आकर्षण नहीं दिखता पर शैक्षणिक संस्थाओं में इनका  प्रभाव अब भी जबरदस्त है जबकि वह  स्वयं  भयानक अज्ञान के अंधेरे में विराजमान लगते हैं। लोकतंत्र सिद्धांतों के अनुसार वर्तमान प्रबंध व्यवस्था का विरोध करने की सभी को आजादी है पर इस आड़ में अपने ही देश  विरोध करना पागलपन नहीं अपराध है यह बात उन्हें समझना होगी।
             एक ऐसे विश्वविद्यालय में जो जनता के पैसे से चल रहा है वहां शिक्षा लेते हुए भारत की बर्बादी देखने की चाहत देखने वालों को कैसे समाज बर्दाश्त करे जब उस पर वैसे ही असहिष्णु होने का आरोप लग रहा हो। देशविरोधी नारे तथा आतंकी की फांसी का विरोध करने के कार्यक्रम को वह समाज कैसे बर्दाश्त करेगा जिसे असहिष्णुता कहकर निर्लज्ज कर दिया गया है। सच बात तो यह है कि पिछले दिनों जिस तरह असहिष्णुता का आरोप लगाकर जिस तरह पूरे भारतीय समाज को वैश्विक स्तर पर बदनाम किया गया है उससे यह डर समाप्त हो गया है| अब लोग सोचते हैं  कि इससे ज्यादा बदनामी तो हो नहीं सकती।  इसलिये जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सक्रिय कथित क्रांतिकारियों को अब ज्यादा उम्मीद नहीं रखना चाहिये। उनके समर्थक या मार्गदर्शक बुद्धिजीवी यह बात समझ लें। वह कह रहे हैं कि जेएनयू का मसला देश में दक्षिणपंथियों के विरुद्ध जायेगा, यह भी तो सोचें कि पूरा भारतीय समाज चेतनावान है और तमाम वैचारिक हमलों के बावजूद वहा प्राचीन तत्वों से जुड़ा है। सीधी बात कहें तो समाज में दक्षिणपंथियों की जड़ें प्रगतिशील और जनवादियों से कहीं जयादा गहरी हैं। संभव है यह समाज  अपने अपमान का प्रतिकार करने के लिये दक्षिणपंथियों का अधिक पुरजोर ढग से साथ देने लगें।
     दूसरा तथ्य यह भी है कि  भारत व हिन्दू धर्म के विरुद्ध जाकर इस देश में कोई क्रांति नहीं हो सकती यह बात प्रगति व जनवादी विद्वानों को समझ लेना चाहिये। जहां तक भारतीय समाज का सवाल है उसे असहिष्णु कहकर वैसे ही बदनाम कर दिया तो वह देश व धर्म विरोधियों से क्यों सहानुभूति दिखायेगा? सच बात तो यह है कि अभी तक राजकीय संस्थाओं से प्रगतिशील व जनवादियों को जो प्रश्रय मिल रहा था वह समाप्त हो रहा है जिससे निराशा होकर प्रचार पाने के लिये वह अनेक तरह की नाटक बाजी कर रहे हैं यह उसी का हिस्सा है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Wednesday, January 20, 2016

संसार के जीवों में भिन्नता रहना स्वाभाविक-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(Sansar ki jivon mein Bhinnta rahana SwaBhavik-Bhartrihari Neeti Shatak ka Adhar pa chinttan lekh)

          हमारे देश में आजादी के बाद कथित रूप से बौद्धिक जगत में अनेक विचाराधारायें प्रवाहित हुईं है जिसमें लोगों के मस्तिष्क हरण कर उन्हें मौलिक चिंत्तन से दूर रखने का प्रयास इस उद्देश्य से किया गया कि वह यथास्थिति में परिवर्तन का विचार ही न करें। गरीब तथा असहाय के कल्याण का नारा इतना लोकप्रिय रहा है कि इसके सहारे अनेक लोगों ने समाज में श्रेष्ठ पद प्राप्त किया।  इसके बावजूद गरीब, असहाय तथा श्रमिकवर्ग की स्थिति में बदलाव नहीं हुआ।  यह अलग बात  है कि नारों के सहारे लोकप्रिय हुए कथित आदर्श पुरुषों का अनुसरण करने के लिये अनेक युवक युवतियां आज भी सक्रिय हैं।  सभी का एक ही लक्ष्य है कि गरीब को धनी, असहाय को शक्तिशाली और श्रमिक को सेठ बनायें। इस काल्पनिक लक्ष्य की पूर्ति के लिये अनेक लोग बौद्धिक साधना करते है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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वैराग्य सञ्चरत्येको नीती भ्रमति चापरः।
श्रृङ्गारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्।।
                              हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में भिन्न प्रकार के लोग होते ही हैं। कोई वैराग्य साधना के साथ मोक्ष के लिये प्रयासरत है तो नीति शास्त्र के सिद्धांतों में लीन है तो कोई श्रृंगार रस में लीन है।
                              हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार इस संसार के जीवों के स्वभाव में भिन्नता सदैव रहती है। स्वभाव के अनुसार ही सभी कर्म करते हैं तो परिणाम भी वैसा ही होता है। जो लोग सारे संसार के जीवों को एक रंग में देखना चाहते हैं उन्हें तो मनोरोगी ही माना जा सकता है। समाज सुधारने की मुहिम में अनेक लोगों ने प्रतिष्ठा प्राप्त की जबकि सच यह है इस संसार के चाल चलन में परिवर्तन स्वभाविक रूप से आता है। इसके बावजूद लोगों में भिन्नता बनी ही रहती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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