एक पूर्व सैनिक ने वन रैंक वन पैंशन को लेकर आत्महत्या कर ली। इसको लेकर देश में तमाम तरह का विवाद चल रहा है। हमारा मानना है कि चाहे कुछ भी इस विषय को सरकार के विरुद्ध आंदोलन से जोड़ना गलत है क्योंकि इसके पीछे घरेलू, सामाजिक तथा आर्थिक कारण अधिक जिम्मेदार हैं जिसकी चर्चा पुरुष बहुत कम लोग करते हैं-इस भय से कि उनके बेकार या कमाऊ न मान लिया जाये। हमने अपने सेवानिवृत्त साथियों से चर्चा की। उन्होंने एक पैंशनधारी के अधिक राशि की मांग लेकर आत्महत्या के प्रकरण को वैसा मानने के लिये तैयार नहीं है जैसा कि बताया जा रहा है। सबसे बड़ी बात आप सेना की छह वर्ष क नौकरी पर जिंदगी पर इतना निर्भर नहीं रह सकते जितना सोचते हैं। यहां पैंतीस से चालीस वर्ष नौकरी करने वाले भी हैं वह जानते हैं कि सभी को एक जैसी पैंशन इसलिये भी नहीं मिल सकती है क्योंकि नौकरी की अवधि अब मायने नहीं रखती पर अंतिम वेतन का महत्व भी नकारा नहीं जा सकता। पांच वर्ष पूर्व नौकरी छोड़ने वाला आज नौकरी छोड़ने वाले जितनी पैंशन नहीं पा सकता-प्रोत्साहन के रूप में कुछ रकम बढ़ायी जाये यह बात अलग है। एक अन्य फेसबुक पर हमारे सेवानिवृत साथियों ने आत्महत्या करने वाले पैंशनधारी का समर्थन करने से इंकार तक किया है।
वर्तमान सरकार पर जवानों या कर्मचारियों के प्रति उदासीनता का आरोप लगाना गलत है। पिछली सरकारों ने वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर अच्छा एरियर इसलिये दिया क्योंकि वह देर से लागू की गयीं-उसमें भी पुराने भत्तों का एरियर नहीं दिया गया था। इस सरकार ने तत्काल वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू की इसलिये एरियर अधिक नहीं दिया। भत्तों पर विवाद की वजह से अभी पुराने वेतनमान से दिया जा रहा है और जल्दीउसका निर्णय भी हो जायेगा। ठीक है भत्ते कुछ देर से मिलेंगे पर उनका एरियर भी तो मिलेगा। जबकि पहले नहीं मिलते थे। पैंशन से पूरा घर नहीं संभल सकता पर पति पत्नी तो सहजता से पल जाते हैं-यही पैंशन देने का मकसद है। इससे आगे की जिम्मेदारी सरकार पर डालना गलती है। किसी की पैंशन इतनी कम नही है कि वह आत्महत्या करे ओर सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाये।
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