जब नोटबंदी का अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक ने समर्थन किया तो हमें आश्चर्य हुआ। इस मामले में जनवादियों से ऐसे तर्कों की उम्मीद कर रहे थे जिनमें तीसरा पक्ष होता। जनहित के विषयों में हमारा कुछ विषयों पर राष्ट्रवादियों तो कुछ पर जनवादियों से विचार मिलता है। हमारा विचार तो प्रगतिशीलों से भी मिलता है पर मूल रूप से हम भारतीय विचारवादी हैं जिसके संदर्भ ग्रंथों में अध्यात्मिक तथा सांसरिक विषयों पर स्पष्ट, सुविचारित तथा वैज्ञानिक व्याख्यान मिलते हैं। इन्हीं के अध्ययन से हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत के लिये न केवल अध्यात्मिक वरन् सांसरिक विषयों में भी जापान, अमेरिका, चीन या ब्रिटेन में से किसी एक या फिर आधा इधर से आधा उधर से विचार उधार लेकर राजकीय ढांचा बनाना एक बेकार प्रयास है। यहीं से हम प्रत्यक्ष अकेले पड़ जाते हैं पर हम जैसे सोचने वाले बहुत हैं-पर कोई एक मंच नहीं बन पाया जिसकी वजह से सब अकेले अकेले जूझते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के समर्थन के बाद जनवादियों के लिये नोटबंदी के विरुद्ध चिंत्तन करने का रास्ता खुल गया था पर उन्होंने निराश किया। उनकी मुश्किल यह रही कि उनके आदर्शपुरुषों चीन के राष्ट्रपति शीजिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी भारत की नोटबंदी का समर्थन कर दिया इस कारण उन्हें अपना चिंत्तन बंद कर दिया और जनता की तात्कालिक समस्याओं को ही मुद्दा बनाकर विरोध करने लगे। भारतीयवादी-कृपया इसे स्वदेशी न कहें-होने के कारण अंतर्जाल पर हमारा कोई समूह नहीं है मगर करीब करीब सभी समूहों के विद्वान हमसे जुड़े हैं। भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर हमने जो आठ बरस पहले बातें लिखीं वह आज कही जा रही हैं। हमारे एक अंतर्जालीय मित्र ने हमसे कहा था कि आपके अंतर्जाल पर मित्र कम रहेेंगे पर आपको पढ़ने वाले बौद्धिक जरूर होंगे और आपके विचारों का अनुकरण इस तरह करेंगे कि आपको पता ही नहीं चलेगा। आतंकवाद पर सबसे पहले हमने लिखा था कि यह एक व्यापार है और यही आज सभी लोग कह रहे हैं। भ्रष्टाचार से देशभक्ति पर खतरे का प्रश्न हमने उठाया था जिसका बाद में अनेक लोगों ने अपने नाम से प्रचार करते हुए उठाया। आज नोटबंदी के दौर में ऐसे कई प्रश्न हमारे दिमाग में आ रहे हैं जिनका उत्तर मांगना है पर हमारी बात अपनी जगह तक पहुंचेगी उसमें समय लगेगा। हम जिन खतरों को अनुभव कर रहे हैं जनवादी उन्हें क्यों नहीं अनुभव कर रहे हैं? यह प्रश्न भी आता है।
नोटबंदी के बाद ऐसा कोई दिन नही रहा है जब एटीएम की लाईन में हम न लगे हों। एक दिन बैंक की लाईन में भी जाकर देखा। सभी दिन पैसा नहीं निकाला क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य इन पंक्तियों में खड़े होकर उस जनमानस को देखना था जो बाद में एक समाज बन जाता है। हमें उनकी तात्कालिक मुद्रा की आवश्यकता नहीं देखनी थी क्योंकि वहां हर आदमी इसी कारण आया था। हमें देखना था कि आखिर उसकी मानसिकता क्या है? वह इस समस्या स जूझने बाद कौनसे परिणाम की कल्पना कर रहा है? यह भी बता दें कि हमने सड़कों पर ऐसे भी लोग देखे जिनको नोटबंदी की परवाह नहीं थी। उससे बात कर कोई निष्कर्ष नहीं निकलना था। सभी लोग इस पर खुश थे। हमें तो उन पंक्तियों में अपने लिये चिंत्तन सामग्री ढूंढनी थी। अखबार और टीवी के समाचार भी पढ़े और देखे पर हमें त्वरित समस्याओं से ज्यादा भविष्य की तरफ देखना है। हम इस दौरान प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ रहे थे क्योंकि वह तो समय देगा पर कुछ चेतावनियों का अनुभव हुआ और वह बहुत डरावनी लगी रहीं हैं।
हम भारतीय हैं। हमें विश्वगुरु कहा जाता है। यह पदवी केवल पूजा पाठ की वजह से नहीं वरन् एक ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण जीवन शैली के कारण मिली है। हमारे पास अपना अर्थशास्त्र है तब जापान, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन के यशस्वी विचाराकों के सिद्धांतों को उधार लाने की जरूरत क्यों हैं? हम विकास का वह स्वरूप क्यों चाहते हैं जो जापान या चीन का है? जब हम चीन, जापान, अमेरिका या ब्रिटेन की तरह बनना चाहते हैं तो हमें यह भी क्या यह नहीं देखना चाहिये कि हमारा राज्य प्रबंध तथा समाज कैसा है? मूल बात यह कि हमारे देश के नागरिक क्या चाहते हैं?
नोटबंदी कर नागरिकों को सुखद भविष्य का सपना दिखाया गया है। सब जानते हैं कि इसके आगे भी काम किये बिना सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं होगा। कहा गया कि आतंकवादियों के पास धन की कमी हो जायेगी। जिस तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार है उसके चलते यह संभव नहीं लगता। जब मुद्रा वितरण से जुड़े लोगों पर ही काला धन सफेद करने को आरोप लग जायें तब क्या उनसे यह आशा कर सकते हैं कि वह आतंकवादियों को वही सुविधा नहीं देंगे? कश्मीर में कुछ दिन आतंक थमा रहा पर आतंकियो पास जब दो हजार के नोट पहुंच गये तो फिर वही क्रम शुरु हो गया है। नोटबंदी के बाद पंजाब में भी एक जेल टूट गयी जिसमें भ्रष्टाचार एक हथियार बना। मतलब आतंक और भ्रष्टाचार पर नकेल का दावा तो तात्कालिक रूप से निष्फल हो गया। अब जनमानस जैसे ही अपनी समस्या से निजता पायेगा तो वह सवाल करेगा। वह इधर उधर देखेगा। जब सब पूर्ववत मिलेगा तो उसके अंदर एक भारी निराशा पैदा होगी। यही निराशा क्रोध का रूप भी लेगी। उसके पास करने के लिये ज्यादा कुछ नहीं पर समय आने पर वह अपने मत से सब बता देगा। संभव है कि लोकप्रियता के शिखर पर जो लोग हैें उन्हें खलनायक करार दिया जाये। नोटबंदी के बाद कर्णधारों के पास पीछे लौटने का अवसर नहीं है और उन्हें आगे बढ़कर अपनी प्रहारशक्ति दिखानी होगी। खड़े या यहीं बैठे रहने का भी अवसर अब निकल गया है।
सबका साथ सबका विकास का नारा अच्छा है पर याद यह भी रखें कि जो साथ दें उनका ही विकास हो-जिन्हें नहीं चाहिये उन्हें दूध में मक्खी की तरह अपने पास से हटा दें। यह राजसी नीति है इसमें सात्विक सिद्धांतों को कोई मतलब नहीं है।
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नोट-इसी ब्लॉग पर नोटबंदी पर आगे भी लेख आयेंगे।
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