भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में समाधि की स्थिति भक्ति तथा ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति मानी गयी है। समाधि में होने पर ही व्यक्ति का आत्मा परमात्मा व संसार की भिन्नता का अनुभव होता है। इसके अभ्यास से ही पता चलता है कि हम वह आत्मा है जो शरीर रूपी यंत्र पर सवार हैं। जिस तरह किसी वाहन का कुशल चालक उसे लक्ष्य तक पहुचाता है तो अनाड़ी दुर्घटना कर देता है। योगभ्यासी अपनी देह, मन वह विचारों को शुद्ध कर संसार में सहजता से विचरता हो तो भोगी हमेशा ही तनाव में रहता है।
पतंजलि योग दर्शन में कहा गया है कि----------------’सत्तवपुरुषान्यतारव्यातिमात्रस्य सर्वभावविधष्ठानतृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चं।।हिन्दी में भावार्थ-बुद्धि तथा पुरुष इन दोनों में भिन्नतामात्र का ही जिसे ज्ञान होता है ऐसी सबीज समाधि को प्राप्त योगी सब भावों से युक्त सर्वज्ञ हो जाता है।
व्याख्या-हमारे यहां समाधि को लेकर अनेक भ्रम फैलाये जाते हैं। समाधि कोई देह की नहीं वरन् मन की स्थिति है। जब साधक को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उसकी देह में स्थित बुद्धि तथा आत्मा प्रथक हैं तब वह दृष्टा भाव की अनुभूति करता है। वह कुछ करते हुए भी स्वयं को अकर्ता समझता है। इससे उसकी बुद्धि के साथ ही मन पर भी नियंत्रण हो जाता है। ध्यान तथा धारण की क्रिया के दौरान जब साधक की बुद्धि में रजोगुण के साथ ही तमोगुण निष्क्रिय होते है जिससे सतोगुण का प्रभाव बढ़ जाता है। उस समय प्रकृत्ति व पुरुष के बीच भिन्नता का आभास होते ही उसके अंदर ज्ञान ज्योति प्रज्जवलित हो जाती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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