एक सम्मेलन में आयोजक ने कहा कि ‘आजकल लोग कुछ भी बोलना चाहते हैं। उन्हें उस विषय की समझ नहीं है जिस पर बोलना है इसलिये अन्य विषयों को अनावश्यक रूप से उठाते हैं।’
हम इस पर चिंत्तन करने लगे। अनेक विचार आये पर हमें लगा कि उन्हें व्यक्त करना व्यर्थ है। हमारे समझने से कोई समझेगा नहीं और जिसे समझाना है उसे आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो शिकायतकर्ता है।
भौतिकता के जाल में आदमी ने अपना ही नहीं अपने परिवार का मन इस तरह फंसा दिया है कि उसमें बौद्धिक विलास की संभावना ही नहीं रहती। लोग बाहर के विषयों में लिप्त हैं पर उस पर समझ अपनी आवश्यकतानुसार है। इस तरह अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उनके विषय सीमित हो गये हैं जिनमें वह घूमते रहते हैं। दूसरे के अनुसार अपनी समझ कायम करने की ताकत अब बहुत कम लोगों के पास रह गयी है। जिन विषयों से दैनिक संबंध नहीं है पर उससे जुड़ने की आवश्यकता होगी इसलिये उसका अध्ययन करना चाहिये-यह विचार कोई नहीं करता। अपना दर्द ही सभी को दुनियां का सबसे बड़ा विषय लगता है। हमें तो कभी कभी लगता है कि जब दो व्यक्ति आपस में संवाद करते दिखें तो यह समझना नहीं चाहिये कि दोनों एक दूसरे की सुन रहे हैं। हमें यह अनुभव होने लगा है कि हम अगर किसी से बात कर रहे हैं तो लगता नहीं कि वह सुन रहा है क्योंकि हमारा वाक्य समाप्त नहीं होता सामने वाला शुरु हो जाता है।
योग साधना के बाद हमने ध्यान तथा मौन की जो शक्ति देखी है उसका अनुभव भीड़ में जाकर करते हैं। सभी को सुनते हैं। अपनी बात तब तक नहीं कहते जब तक कोई बाध्य न करे। अब हमने फेसबुक तथा ब्लॉग को अपनी एकाकी अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम बना लिया है जहां हमें राहत मिलती है। लिखने से व्यक्ति की मनोदशा पता लग जाती है। फेसबुक पर हमें पूरे देश के मनोभाव पता लग जाते हैं। सामान्य विद्वानों की सीमायें और गहन चिंत्तकों की व्यापकता भेद हमारे सामने आ जाता है। सभी का अध्ययन करने के बाद हमारा निष्कर्ष तो यही निकला कि लोगों ने अपनी संवेदनाओं को बीमार बना दिया है। न वह सुख अच्छी तरह ले पाते हैं न ही दुःख से लड़ने का उनमें माद्दा रहा है। इन बीमार संवेदनओं के साथ अनुभूतियां ज्यादा समय तक जिंदा रखना संभव भी नहीं दिखता।
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