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Wednesday, January 20, 2016

संसार के जीवों में भिन्नता रहना स्वाभाविक-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(Sansar ki jivon mein Bhinnta rahana SwaBhavik-Bhartrihari Neeti Shatak ka Adhar pa chinttan lekh)

          हमारे देश में आजादी के बाद कथित रूप से बौद्धिक जगत में अनेक विचाराधारायें प्रवाहित हुईं है जिसमें लोगों के मस्तिष्क हरण कर उन्हें मौलिक चिंत्तन से दूर रखने का प्रयास इस उद्देश्य से किया गया कि वह यथास्थिति में परिवर्तन का विचार ही न करें। गरीब तथा असहाय के कल्याण का नारा इतना लोकप्रिय रहा है कि इसके सहारे अनेक लोगों ने समाज में श्रेष्ठ पद प्राप्त किया।  इसके बावजूद गरीब, असहाय तथा श्रमिकवर्ग की स्थिति में बदलाव नहीं हुआ।  यह अलग बात  है कि नारों के सहारे लोकप्रिय हुए कथित आदर्श पुरुषों का अनुसरण करने के लिये अनेक युवक युवतियां आज भी सक्रिय हैं।  सभी का एक ही लक्ष्य है कि गरीब को धनी, असहाय को शक्तिशाली और श्रमिक को सेठ बनायें। इस काल्पनिक लक्ष्य की पूर्ति के लिये अनेक लोग बौद्धिक साधना करते है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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वैराग्य सञ्चरत्येको नीती भ्रमति चापरः।
श्रृङ्गारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्।।
                              हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में भिन्न प्रकार के लोग होते ही हैं। कोई वैराग्य साधना के साथ मोक्ष के लिये प्रयासरत है तो नीति शास्त्र के सिद्धांतों में लीन है तो कोई श्रृंगार रस में लीन है।
                              हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार इस संसार के जीवों के स्वभाव में भिन्नता सदैव रहती है। स्वभाव के अनुसार ही सभी कर्म करते हैं तो परिणाम भी वैसा ही होता है। जो लोग सारे संसार के जीवों को एक रंग में देखना चाहते हैं उन्हें तो मनोरोगी ही माना जा सकता है। समाज सुधारने की मुहिम में अनेक लोगों ने प्रतिष्ठा प्राप्त की जबकि सच यह है इस संसार के चाल चलन में परिवर्तन स्वभाविक रूप से आता है। इसके बावजूद लोगों में भिन्नता बनी ही रहती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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