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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, February 26, 2014

संत कबीर दर्शन-अध्यात्मिक विषय से ही सुख मिल सकता है(sant kabir darshan-adhyatmik vishayon se hee shanti mil sakti hai)




      टीवी के पर्दे पर अनेक ऐसे कार्यक्रम प्रसारित होते हैं जिसमें दर्शकों को उपभोग संस्कृति के लिये इस तरह प्रेरित किया जाता है कि उसे पता ही नहीं लगता कि वह कैसे उसमें फंस रहा है। इन कार्यक्रमों की विषय वस्तु में शादी, जन्मदिन, पिकनिक तथा धार्मिक पर्वों की कहानियां इस तरह लिखी जाती हैं जिससे दर्शक बाहर मनोरंजन के लिये प्रेरित हों तथा उपभोग की वस्तुओं का क्रय करें। इतना ही नहीं धार्मिक कार्यक्रमों में अंधविश्वास फैलाने वाली वस्तुओं के क्रय की प्रेरणा तक दी जाती है।
       हमारे देर्श में धर्म एक गंभीर विषय होता है। देखा यह जा रहा है कि टीवी पर जहां धार्मिक कार्यक्रमों में अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा होनी चाहिये वहां उसमें बीमारियों के इलाज के लिये आयुर्वेद की दवायें खरीदने का विषय भी जोड़ दिया जाता है।  यह सही है कि आयुर्वेद ग्रंथ भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का एक भाग है पर इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि उससे बनी दवायें कोई अमृत होने का प्रमाण बन जाती है।  यह दवायें उपयोगी हो सकती है पर हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्वस्थ रहने के लिये योग साधना तथा श्रमपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देता है ताकि मन, देह तथा विचारोें में ऐसे अमृत का निर्माण हो हमारा सहायक बने।
संत कबीरदास कहते हैं कि
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कोटि करमकर पलक में, या मन विषया स्वाद।
सद्गुरु शब्द न मानहीं, जनम गंवाया वाद।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-यह मन विषयों में फंसाकर मनुष्य को  करोड़ों अपराध करने के लिये करता है। परमात्मा का स्मरण तथा अध्यात्मिक ज्ञान करने में अगर समय लगाया जाये तो यह जीवन अत्यंत आनंदमय हो जाये।
दौड़त दौड़त दौड़िया, जेती मन की दौर।
दौड़ि थके मन थिर भया, वस्तु ठौर की ठौर।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जहां तक मन की दौड़ हो सकती है वहां तक आदमी चला जाता है। जब मन थक जाता है तो वह बैठकर आराम करता है मगर अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में उसे कभी शंाति नहीं मिलती।
      देखा जाये तो हमारे देश में धर्म के नाम पर भी मनोरंजन करने की एक ऐसी व्यवसायिक परंपरा रही है जिससे चालाक लोग अपना घर परिवार चलाते हैं। इसे सामान्य केवल ज्ञान साधक ही जानते हैं।  सकाम और साकार भक्ति की प्रेरणा देकर व्यवसायिक धार्मिक लोग  अपना हित साधते हैं।  इतना ही नहीं जो शुद्ध रूप से मनोरंजन का व्यवसाय करते हैं वह भी कभी न कभी धर्म की आड़ लेते हैं।  आजकल विज्ञापन के दौर में तो ज्यादा ही सतर्कता बरतने की जरूरत है।  सच बात तो यह है कि बाहर कहीं स्वर्ग नहीं मिल सकता। स्वर्ग के आनंद की अनुभूति केवल अंतर्मन में ही की जा सकती है। एक बात तय रही कि भोग से नहीं त्याग से शांति मिलती है। उसी तरह शोर से कभी सुख नहीं मिलता वरन् मौन ही वह शक्ति देता है जिससे जीवन आनंदमय है। यह मौन केवल वाणी का नहीं वरन् समस्त इंद्रियों का होना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Tuesday, February 18, 2014

मन चंगा हो तो कठौती में गंगा की अनुभूति होती है-हिन्दी धार्मिक चिंत्तन(man changa ho to kathauti mein ganga ki anubhuti hotee hai-hindi dharmik chinttan)



      इस समय सर्दी का मौसम चल रहा है। कहने को बसंत ऋतु आ गयी है पर अचानक बर्फबारी होने से शीतलहर का प्रकोप पहले से अधिक हो गया है। ऐसे में बर्फीले पर्यटन स्थलों पर सैलानियों के उमड़ने की खबर आती है तो हैरानी नहीं होती।  हमारे देश में जिंदगी से उकताये लोगों की कमी नहीं है। जिंदगी से वही लोग उकताते हैं जिनके पास पैसा खूब है पर करने के लिये कुछ नही है। गरीब या मध्यम वर्ग के लोगों की जिंदगी का संघर्ष प्रतिदिन चलता है और देखा जाये तो इसमें उनके लिये मनोरंजन भले ही न हो पर दिमाग को व्यस्त रखता है। इसलिये वह अपने मस्तिष्क में ं इधर उधर भागकर मन बहलाने का विचार तक नहीं ला पाते।  दूसरे वह लोग भी उकताये रहते हैं जो सुबह भ्रमण नहीं करते या फिर अपने शहर को ही समझ पाते।  यह विचार इस लेखक के एक मित्र के पर्यटन से लौटने के बाद इस टिप्पणी के बाद उपजे जिसमें उसने कहा कि ‘‘देाा जाये तो बाहर जाकर घूमने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि इतना आनंद तो हम अपने शहर में ही लेते है। बाहर जाकर घूमने का तनाव होने के बाद घर लौटने पर हुई थकान से तो यह सीखा जा सकता है।
      देखा जाये तो ठंड हमेशा ही देह की संवेदनक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव डालती है यानि नर्वस सिस्टम पर शीत लहर का बुरा प्रभाव होता है।  जुकाम, खांसी और बुखार की संभावना अधिक रहती है।  सर्दी  में स्वेटर, टोपा और हाथ के दास्ताने पहनकर स्कूटर पर रात को निकलना एक तरह से स्वयं स्वीकारी सजा की तरह लगता है।  हमारा घर मुख्य शहर के  बाहरी इलाके में है जहां गर्मी और सर्दी की हवायें अब शरीर को भारी कष्ट देती हैं। अब यह उम्र का परिणाम है या वातावरण प्रदूषित होने से कि हमारा मौसम से संघर्ष होता ही है।  गर्मी में जब शाम को सात बजे घर लौटते हैं तो गर्म हवायें ऐसी लगती हैं जैसे कि भट्टी के पास से निकल रहे हों। अब तो यह लगने लगा है कि कार लें तभी सामान्य रूप से बाहर निकल पाये। दूसरा उपाय यह है कि स्कूटर की बजाय हम ऑटो या पैदल सफर करें।   कहने का अभिप्राय यह है कि अब या तो अमीरों के लिये या फिर गरीबों के लिये ही मौसम रह गया है।  मध्यम वर्ग के लिये वैसा ही संकट है जैसा कि आजकल भारतीय अर्थव्यवस्था की वजह से उसके घर का है।
      उस दिन हम एक दिन के लिये दिल्ली प्रवास पर थे।  वहां ऐसा नहीं लगा कि जैसे कहीं बाहर घूम रहे हैं।  अनेक बार ऐसा लगा कि अपने शहर में ही घूम रहे। सड़कें, घर और मंदिरों को देखकर कोई नया आकर्षण पैदा नहीं हो रहा था।  घर लौटे तब याद आया कि हम दिल्ली से लौटे हैं। तब संत रविदास का यह संदेश ध्यान आया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। सुबह योग साधना और उद्यान का भ्रमण करना की दिनचर्या अगर बाधित हो तो हमारा मन खराब हो जाता है। ऐसे में कहीं बाहर जाना पड़े तो हमारे लिये मनोरंजन का धन ऋण पत्रक बराबर ही रहता है।  एक तरह से कहें तो वह ऋणात्मक यानि माइनस हो जाता है। वैसे देखा जाये तो सरस्वती माता की कृपा होने से जो यह लिखने की कला मिली है उसके आगे कोई भी प्राकृतिक उपहार मूल्यवान नहीं लगता।  हमारे लिये लिखना सत्संग की तरह हो गया है। पहले सत्संग में जाकर जो आनंद मिलता था वह लिखने से मिलता है।  हमने एक सत्संगी के मुख से सुना था कि अपनी घोल तो नशा होय। टीवी पर जब कोई मनोरंजक कार्यक्रम देखते हैं तो लगता है कि वक्त खराब करने की बजाय इंटरनेट पर एक कविता ही लिख डालें।
      हालांकि कहते हैं कि कंप्यूटर का नशा भी बुरा है। हालांकि हमें यह पता है पर फिर भी लगता है कि जायें तो कहां जायें? इससे निजात पाकर फुर्सत हो तो हो ध्यान लगाकर इससे प्राप्त विकृतियों का विध्वंस करते हैं। ध्यान लगाने से  कंप्यूटर से हुई थकान तुरंत फुर्र हो जाती है।  यही कारण है कि हमारा चिंत्तन चलता रहता है उसी से इस बात की अनुभूति  हुई कि इंसान के मन के सौदागर बहुत है और वह विभिन्न विषयों का सृजन इस तरह करते हैं कि किसी को इस बात का पता ही नहीं चले कि सत्य से असत्य की तरफ कैसे जा रहा है?
      अनेक मिलने वाले लोग आकर देश के प्रसिद्ध मंदिरों में चलने का प्रस्ताव देते हैं हम हां तो करते हैं पर मन नहीं करता।  जितने भी प्रसिद्ध सर्वशक्तिमान के रूप हैं उनके बड़े मंदिर हमारे शहर में ही हैं। हम अक्सर वहां जाकर ध्यान लगाकर अपने मन की प्रसन्नता पा ही लेते हैं।  हमारे मित्र लोग जो ऐसे मंदिरों पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं दरअसल वह कभी इस तरह अपने अवकाश का उपयोग नहीं करते। अवकाश के दिन भी वह सासंरिक विषयों में उसी तरह समय बिताते हैं तब उनको कहां शांति मिलनी है?
      जब इस तरह का चिंतन हमारे मन में चलता है तब संत रविदास की याद आती है जिन्होंने का मन का विज्ञान बताने वाला यह मंत्र दिया था मन चंगा तो कठौती में गंगा।उनकी जयंती हाल ही में मनायी गयी थी। उनकी यह एक पंक्ति ही संसार का सच बयान कर देती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, February 12, 2014

चाणक्य नीति-जीवन का दर्शन कुत्ते से भी सीखा जा सकता है(chanakya neeti-jiwan ka darshan kutte se bhi seekhna chahiey)



      यह विचित्र बात है कि श्वान या कुत्ते को एकदम घटिया पशु कहा जाता है। जब कोई एक व्यक्ति दूसरे  के विरुद्ध क्रुद्ध होकर विषवमन करना हो तो उसे कुत्ता कह कर अपनी भडास निकालता है। इतना ही नहीं अगर किसी व्यक्ति को उत्तेजित करना हो तो उसे भी यही उपाधि दी जाती है।  हालांकि समाज में कुत्ते को पालने वाले हमेशा ही रहे हैं। गांव हो या शहर कुत्ते को लोग पालते हैं। कुत्ते की वफादारी का गुण विश्व विख्यात है पर उसका यह भी गुण है कि थोड़ा मिलने पर भी वह प्रसन्न हो जाता है।  अक्सर कुत्ते सोते मिलते हैं पर जरा आहट होने पर ही वह जाग जाते हैं। इतना ही नहीं जब स्वामी पर संकट हो तो कुत्ता अपनी जान की भी परवाह नहीं करता। 
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शुरश्च बडेते श्वानतो गुणाः।।
     हिन्दी में भावार्थ-समय के अनुसार बहुत खाना या कम ही खाने से संतुष्ट हो जाना, अवसर मिले तो खूब सोना पर आहट होते ही जाग जाना तथा वफदारी के साथ ही वीरता का गुण कुत्ते से सीखना चाहिये।
      देखा जाये तो सभी पशु पक्षियों में कोई न कोई गुण होता है पर इंसान उसे अनदेखा कर देता है। इंसानों में सभी बुरे हो नहीं सकते पर यह भी सच है कि स्वाजातीय जीवों के लिये इंसान ही खतरा होता है।  अपराध विशेषज्ञों के अनुसार इंसान के लिये खतरा दूसरे इंसान कम अपने निकटस्थ ज्यादा होते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध अपराध उनके करीबी ही ज्यादा करते हैं।  हम जब धोखे की बात करते हैं तो वही देता है जिस पर हम अपना समझकर यकीन करते हैं।  गद्दारी का शिकार आदमी तभी होता है जब वह किसी को मित्र मानकर उसे अपनी गुप्त बातें बताता है।
      अधिकतर लोग अपनी मतलब की वजह से कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उन्हें मित्र या रिश्ते का ख्याल नहीं आता।  हम स्वयं ऐसा न करें यह अच्छी बात है पर दूसरे पर यकीन करते हुए उसकी पिछली पृष्ठभूमि देखना चाहिये।  हमें अपने जीवन के प्रति सतर्कता बरतना चाहिये और किसी पर दूसरे पर विश्वास करते तो दिखें पर करें नहीं। दूसरी बात यह कि हमें कभी स्वयं किसी से गद्दारी नहीं करना चाहिये। अगर किसी का काम न करना हो तो उससे वादा कभी नहीं करें। जीवन का सिद्धांत यही है कि जैसा व्यवहार आप दूसरे से चाहते हैं वैसा स्वयं ही करें।

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Wednesday, February 05, 2014

बंद हृदय गति, निष्क्रिय मस्तिष्क और चमक खोती देह समाधि का प्रमाण नहीं-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेख(band hirdya gati,hishkriya mastishk aur chamak khoti deh samad.hi ka praman nahin-patanjali yog ke aadhar par lekh)




      हमारे देश में पतंजलि योग साहित्य का अध्ययन अगर शैक्षणिक पुस्तकों में कराया जाता तो शायद धर्म के नाम पर कभी इतना पाखंड नहीं फैलता।  दरअसल लोगों को योग विद्या का ज्ञान नहीं है इसलिये कोई भी पेशेवर धर्म प्रवचनकर्ता उन्हें अपने  लाभ के लिये भ्रमित करते हैं। स्थिति यह है कि जितने पेशेवर गुरु हैं उतने ही प्रकार के योग के रूप बन गये हैं। हास्य की स्थिति तब होती है प्रचार माध्यमों में समाचार, बहस तथा लेखों में अनेक लोग योग में महारथी के रूप में प्रस्तुत होते हैं।  उस समय पतंजलि योग का अध्ययन करने वाले साधक दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। योग साधना के रूप तथा तत्वज्ञान को एक मानकर बहस होती है जो एकदम अर्थहीन है।
      अभी हाल ही में एक संगठन के गुरु की समाधि चर्चा का विषय बनी हुई है। चिकित्सक मानते हैं कि वह देह का त्याग कर चुके हैं-उनका हृदय, मस्तिष्क तथा अन्य दैहिक क्रियायें एकदम काम करना बंद कर चुकी हैं। अब बहस इस बात की हो रही है कि पश्चिमी चिकित्सा पद्धति के आधार पर समाधि मानी जानी चाहिये कि नहीं। फिर कहा जाता है कि विज्ञान अलग विषय है भारतीय धार्मिक आस्थायें उनकी तराजु पर नहीं तोली जा सकती। समाधि पर तमाम तरह के विचार आ रहे हैं। हैरानी इस बात की है कि अनेक कथित संत इस विषय पर तर्क दे रहे हैं पर पतंजलि योग के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों को इस विधा का अध्ययन अब शुरु करें न कि उस पर अपनी बात रखकर समाज को भ्रमित करना चाहिये। जिन गुरु की समाधि की चर्चा हो रही है उनके चालक की बात मानी जाये तो उनकी संस्था के पास हजारों करोड़ की संपत्ति है। माया का यह विशाल रूप अध्यात्मिक सिद्धों के पास नहीं आता भले ही कहा जाता हो कि वह त्यागियों की दासी होती है। माया संतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाती है पर वह उसके संग्रह का  मोह ं अपने जीवन में कभी नहीं पालते।
      पतंजलि योग साहित्य में योग के आठ भाग बतायें गये हैं-यम, नियम, प्रत्याहार, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारण और समाधि।  समाधि योग का चरम रूप है।  इसमें लीन होने पर योग सिद्ध होना माना जाता है। इस समािध में भी अनेक भेद हैं पर उसका कोई स्पष्ट प्रकट स्वरूप नहीं है। अक्सर लोग सांस रोककर पड़ रहने को समाधि मानने लगते हैं। कुछ लोग बैठकर ध्यान लगाते हैं तो उसे भी समाधि कहा जाने लगता है। सांस रोकना प्राणायाम है तो ध्यान लगाना एक तात्कालिक सहज स्थिति है। जबकि योग का चरमरूप समाधि  एक मनस्थिति है जिसे बाहर से देखा नहीं जा सकता।
पतंजलि योग साहित्य के समाधि पद में कहा गया है कि
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योगनिश्चितवृत्तिनिरोधः
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।
तदा दृष्टुः स्वरूपेऽअवस्थानम्।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-उस सयम दृष्टा  अपने रूप में स्थित हो जाता है।
      पतंजलि योग में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि सांस रोकना, मस्तिष्क का कार्य न करना अथवा देह की चमक फीकी पड़ जाना समाधि का प्रमाण है।  समाधि एक आंतरिक स्थिति है जिसमें मन की प्रकृत्तियों को स्थिर रखा जाता है। इसका अभ्यास न किया जाये   एकदम कठिन लगती है। हमारी दृष्टि से समाधिस्थ होना एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति परमात्मा ही नहीं वरन् किसी विषय से जुड़कर उससे मानसिक रूप से एकाकार हो सकता है। जिन लोगों ने निरंकार परमात्मा में मन लगाया उसे पाया और जिन्होंने साकार रूप देखा भी पूज्यनीय रहे।
      समाधि का मतलब है किसी विषय या वस्तु से  से इस तरह जुड़ जाना कि दृष्टा और दृश्य एकाकार हो जाये।  यहां हम तुलसी, कबीर, रहीम तथा मीरा की बात करें तो कहा जा सकता है कि वह  जीवन भर समाधि में ही रहे। उन्होंने जीवन भर परमात्मा से अपना मन इस तरह जोड़ा कि उससे अध्यात्मिक प्रसाद प्राप्त कर समाज को महान रचनायें दी।  समाधि के बाद अध्यात्म का जो प्रसाद मिलता है उसे अनुभव ही  किया जा सकता है। तुलसी ने रामचरित मानस के रूप में पाया प्रसाद समाज को बांटा। कबीर के दोहे भी एक तरह का अध्यात्म प्रसाद है जो हमने पाया।  जितना अध्ययन एक साधक के रूप में हमने किया उससे तो यही लगता है कि समाधि और ध्यान के नाम पर पाखंड अधिक दिखायी देता हैं।  योग साधना एकांत का विषय है।  लोग इस पर सार्वजनिक चर्चा इस तरह करते हैं जैसे कि महान योग विशारद हैं।
      जिस संगठन के गुरु कथित रूप से समाधि में हैं उनके शिष्य आस्था का विषय बताकर जिस तरह के तर्क दे रहे हैं हमें उन पर कोई आपत्ति नहीं है। धर्म के प्रतीक पहनकर कोई उसका महारथी नहीं हो जाता। हम तो बस इतना कहना चाहते हैं कि समाधि एक मनस्थिति है जिसमें हृदय की गति रुकना, मस्तिष्क का निष्क्रिय होना अथवा देह की चमक कम होना समाधि का प्रमाण नहीं है। पतंजलि योग के साधक के रूप में हमारा इतना ही मानना है।

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