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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, April 14, 2016

पेट भरकर भूखों के लिये बवाल करते-दीपकबापूवाणी (DeepakbapuWani)

चंद पलों की खुशी में जीवन लगा देते, सुख की अनवरत भूख जगा देते।
‘दीपकबापू’ कामनायें खूब मन में पाले, यह अलग बात अपने कर्म दगा देते।।
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कभी जीत कभी हार खेल जारी है, पहले से तय जीत हार की बारी है।
‘दीपकबापू’ पैसे के माहिर खिलाड़ी, कमाते चाहे उन्होंने नीयत हारी है।।
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पेट भरकर भूखों के लिये बवाल करते, अपनी रोटी छिनने से दलाल डरते।
‘दीपकबापू’ समाज का ठेका लेकर, सात पुश्तों के लिये घर में माल भरते।।
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सब जानते दिया तले अंधेरा होता, सामने लगी तस्वीर पीछे खाली होता।
‘दीपकबापू’ दौड़े दौलत की राह, देह के शत्रु बाग का जैसे माली होता।
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बाहर भीड़ में लगाते जोरदार नारे, कमरे के अंदर महफिल सजाते सारे।
‘दीपकबापू’ चतुरों के प्रशंसक बहुत, रोज धोखा खाते लोग नसीब के मारे।।
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धर्म बढ़ाने के लिये उन्हें धन चाहिये, समाज बचाने के लिये चंदा चाहिये।
‘दीपकबापू’ भरोसे का बाज़ार लगाते, मु्फ्त सौदे की भी कीमत चाहिये।।
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एतिहासिक योद्धाओं जैसा होने की चाहत, कर देती दिल दिमाग आहत।
‘दीपकबापू’ लगवाते नारे अपनी जय के, बरसों से बेबस ढूंढ रहा राहत।।
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भाषण में नारों से दिल बहलाते, राशन न मिलने का दर्द भी सहलाते।
‘दीपकबापू’ शब्द खाते अर्थ पी जाते, बक्ता जो बकें श्रेष्ठ वही कहलाते।।
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बहुत है घाव पर नमक छिड़कने वाले, बहुत हैं चेहरे काली नीयत वाले।
‘दीपकबापू’ फंसाये सोच मतलब में, परोपकारी की उपाधि गले में डाले।।
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आम आदमी अपना दर्द स्वयं झेले, नया भूल पुराने खिलौने से खेले।
‘दीपकबापू’ कभी बने छोटे कभी खास, हर सवाल पर जवाब मौन ठेले।।
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सोचें दिमाग से दिल की बात करें, इश्क के नाम इज्जत पर घात करें।
‘दीपकबापू’ नयेपन का ओढ़ा लबादा, फिर भी पुरानी आदतें मात करें।।
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जल्दी बदलता परिधान का प्रचलन, अपना पुराना देख होती जलन।
‘दीपकबापू’ पोतकर चमका बूढ़ा चेहरा, नयी जवानी का यही चलन।।
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पेट में खाना भरें कि पचे नहीं, घर में सामान इतना कि जचे नहीं।
‘दीपकबापू’ भरे ढेर सपने दिमाग में, तंग सोच से लोग बचे नहीं।।
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ज्ञान की तिलक पहचान नहीं होता, मतलब से मिला मान नहीं होता।
‘दीपकबापू’ निहारते गुलाब की तरफ, कांटों का उसे भान नहीं होता।।
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माया की कृपा भी डर से छिपातेहैं, लोग लूट को कमाई दिखाते हैं।
‘दीपकबापू’ सिद्धांत टांगे दीवार पर, पीछे अपनी अनैतिकता छिपाते हैं।।
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अन्न जल का मोल समझे लोग कहां, अपनी आंखें गढ़ाते सोना दिखे जहां।
‘दीपकबापू’ थाली लोटा सजा जब सामने, भूख प्यास पर अच्छी बहस हो वहां।।
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वादे करने का सिलसिला नहीं टूटता, बदले चेहरे तो भरोसा नहीं टूटता।
‘दीपकबापू’ अपनी करनी की सजा भोगते, राजा या रंक कोई नहीं  छूटता।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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