आमतौर से यह माना जाता है कि राजनीति कोई भी कर सकता
है पर विद्वान मानते हैं कि शास्त्र का ज्ञाता ही यह काम करे तो बहुत अच्छा रहेगा।
राजनीति का सबसे पहला सिद्धांत यह है कि अपने लोगों को खुश करो और उसके बाद दूसरों
की सोचो। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि दूसरों को खुश करने से पहले अपने लोगों को
खुश करो और यह भी कि अपनो को खुश करने के बाद दूसरों पर भी कृपा करो। एक बात तय
रही कि राजनीति शिखर पर बैठकर अपनी प्रसन्नता के लिये काम करना संभव नहीं है। अगर
कोई ऐसा करेगा तो वह पूरे समाज में प्रतिष्ठा भी गंवा सकता है।
विश्व के अधिकतर देशों में आधुनिक लोकतांत्रिक पद्धति से राजकीय
व्यवस्थाओं का निर्माण होता है।
लोकतांत्रिक पद्धति से व्यवस्थापकों का चुनाव होता है जिनमें प्रचार के
लिये ढेर सारा पैसे खर्च होता है। इसके लिये प्रत्याशियों को धनपतियों से सहायता
लेनी पड़ती है। चुनाव बाद यही धनपति चुने गये प्रतिनिधियों से अपने पैसे की
अप्रत्यक्ष वापसी के रूप में व्यवसाय के लिये अनेक सुविधायें चाहते हैं। देखा यह
गया है कि अनेक बुद्धिजीवी इन धनपतियों पर ही असली शासक होने का आरोप लगाते हैं।
समाज के मध्यम और निम्न वर्ग के लोग तब बहुत निराश होने लगते हैं। गरीब लोग तो आह भरकर रहते हैं पर मध्यम वर्ग
अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हुए विरोध करता है।
कभी कभी तो यह लगता है कि मध्यम वर्ग लोकतंत्र की वह
धुरी है जो अभिव्यक्ति के सिद्धांत का भरपूर उपयोग करता है। इतना ही नहीं यही
मध्यम वर्ग अपनी उपभोग प्रवृत्तियों से पूंजीपतियों का भी सहायक है। यह अलग बात है
कि लोकतंत्र में गरीब के साथ मध्यम वर्ग भी शोषित होता है। अगर इस वर्ग का कोई
सदस्य शिकायत करता है तो प्रतिवाद करने भी समवर्ग का ही व्यक्ति सामने आता
है। अभिव्यक्ति के मैदान पर द्वंद्व हमेशा
मध्यम वर्ग के सदस्यों के ही बीच होता है।
देखा यह गया है कि जो राजसी पुरुष मध्यम वर्ग के दिल
दिमाग में जगह बनाता है वही अंततः लोकप्रियता की सीढ़ियां चढ़ता है। जिससे मध्यम
वर्ग रुष्ट होता है उसे प्रचार में अपयश का सामना करना पड़ता है। सच बात तो यह है
कि मध्यम लोकतंत्र और पूंजीवाद दोनों को बैसाखी प्रदान करता है। वह विभिन्न
वस्तुओं के उपभोग के दाम के रूप में पूंजीपति और कर के रूप में राज्य की सहायता
करता है। ऐसे में मध्यम वर्ग की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। हमारे देश में गरीबों
का कल्याण करने वाले बहुत से शिखर पुरुष हैं पर लोकप्रियता मध्यम वर्ग के समर्थन से
ही मिलती है। हालांकि अब कुछ शिखर पुरुष मध्यम वर्ग के हित की बात कर रहे हैं पर
दबी जुबान से क्योंकि यह आम प्रचलित गरीबों के कल्याण सिद्धांत से कुछ अलग हैं। सच
बात तो यह है कि शिखर पुरुष के गरीबों के कल्याण का नारा मध्यम वर्ग के ही सदस्य
होते हैं जो प्रचार संस्थानों में सेवा करते हैं। यही कारण है कि अनेक समझदार शिखर
पुरुष पूंजीवाद तथा लोकतंत्र के आधार रूप मध्यम वर्ग की अप्रसन्नता से बचने का
प्रयास करते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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