वर्तमान लोकतांत्रिक युग में गरीबों, बीमारों, बेसहारों तथा भूखों के कल्याण का नारा लोकपिंय होता
है। अनेक जगह चुनावों के समय राजकीय पदों के प्रत्याशी केवल कमजोर वर्ग के उद्धार
की बात करते हुए अपने मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। जिसके नारे
में दम होता है वह जीत जाता है। यह अलग बात है जीत के बाद उनके कार्यकलाप वैसे
नहीं रहते जैसी अपेक्षा पहले की जाती है।
हमारे देश में लोकतंत्र के प्रति आत्ममुग्धता इतनी है कि सारे कल्याण के
काम सरकारी तंत्र पर छोड़ दिये गये है। पहले सेठ साहुकार समाज से जुड़े अनेक निर्माण
कार्य तथा कार्यक्रमों का प्रायोजन दान देकर करते थे पर अब बात नहीं रही। कहने को
तो आज भी दान दिये जाते हैं पर उन लोगों के संगठनों को ही इसका लाभ होता है जिनकी
पृष्ठभूमि में शक्तिशाली लोग होते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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दारिद्रायनाशन। दानं शीलं दुर्गतिनाशनाम्।
अज्ञाननाशिनी प्रजा भावना भयनाशिनी।।
हिन्दी में भावार्थ-दान से दरिद्रता, नैतिकता से दुर्भाग्य तथा बुद्धि से अज्ञान का नाश
होता है।
गरीबी हटाने का ठेका अब सरकारी तंत्र पर छोड़ दिया गया है
जबकि पहले दान से दरिद्रता दूर करने के सामाजिक प्रयास होते थे। प्राचीन
तीर्थस्थलों में दान से बनी धर्मशालायें, मंदिर तथा प्याऊ बने हुए
हैं जो इसका प्रमाण जीर्णशीर्ण अवस्था में खड़े होकर देते हैं। अब तीर्थस्थल पर्यटन का केंद्र बन गये हैं जहां
व्यवसायिक निवासों का बोलबाला है। हमारे देश में पाश्चात्य पद्धति के विकास ने
प्राचीन अध्यात्मिक भाव के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है। आधृुनिक लोकतंत्र में
गरीबों के उद्धार का नारा चाहे जितना
लोकप्रिय हो पर सच यह है कि जब तक धनी तथा मध्यम वर्ग दान प्रवृत्ति नहीं
अपनायेगा तब समाज में आर्थिक सद्भाव का वातावरण नहीं बन सकता जो कि विकास का सबसे
बड़ा प्रमाण होता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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