मनुष्य का अगर शब्दिक अर्थ समझना चाहें तो यह मन तथा
उष्मा का मेल लगता है। इस संसार में जितने
भी जीव है उनमें केवल मन की उष्मा हम जैसे जीवधारियों में अधिक है। अन्य जीवों मन
की सीमा या उष्मा क्षीण होती है और इसलिये उनका जीवन सीमित क्षेत्र तक ही चलायमान
रहता है जबकि मनुष्य का अपने मन के व्यापक तत्व के कारण चलने के साथ उड़ने तथा
तैरने में सफल रहता है।
मन का विज्ञान आज तक कोई समझ नहीं पाया पर अध्ययन करें
तो यह निष्कर्ष सामने आयेगा कि इस संसार मेंलोग दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो
मन के अनुसार अपनी देह को चलाते हैं दूसरे वह जो देह की आवश्यकता के अनुसार मन को
चलाते हैं। दोनों में अंतर यह रहता है कि मन के अनुसार चलने वाले देह को थकाते हैं
और देह के अनुसार चलने वाले मन को प्रसन्न करते हैं। देवराज इंद्र ने राजा
हरिश्चंद्र के पुत्र को उपदेश देते हुए कहा था कि‘ सोने वाले नरक, उठकर बैठने वाले पाताल, खड़े होने वाले पृथ्वी और चलने वाले स्वर्ग भोगते हैं।
अब यह तय करना चिंत्तन का विषय है कि हम अपने जीवन में आनंद भाव का प्रवाह किस
तरीके से करना चाहते हैं? दूसरा
यह भी कि हम जिस तरह के भाव में स्थित हैं उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं न कि
केाई अन्य!
आजकल विलासिता के साधन अधिक हो गये और लोग स्मार्टफोन,
टीवी, तथा कंप्यूटर पर बैठकर अधिक से अधिक समय बिताने में मन
लगाते हैं। नतीजा यह कि शरीर कम मन और मस्तिष्क अधिक थक जाता है। इससे अनेक प्रकार
के मानसिक, दैहिक तथा वैचारिक
विकार देह में घर कर जाते हैं। आज हम अपने देश में जो भ्रष्टाचार, अपराध तथा बीमारियों का बढ़ता प्रभाव देख रहे
हैं वह उपभोग के प्रति मोह तथा फिर उससे उपजे विकारों के कारण है। एक तरह से यह
कहें कि मनुष्य के मन की उष्णा उसे सोने की तरह निखारने की बजाय कोयले की तरह
जलाये दे रही है।
यदि हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सकारात्मक राह पर चले
तो मन की उष्मा का सहज और सरल भाव से उपयोग करते हुए ज्ञान का प्रकाशदीप प्रज्जवलित
करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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