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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, May 25, 2015

अपनी समस्याओं से स्वयं ही निपटें-हिन्दी चिंत्तन लेख(apni samashyaon se swyan nipten-hindi thought article)


         हम अक्सर प्रचार माध्यमों में ऐसे कथित विद्वानों, बुद्धिजीवियों तथा समाज सेवकों के वक्तव्य पढ़ते सुनते है जिसमें वह समाज के विभिन्न वर्गों के विकास, उद्धार तथा चेतना लाने के दावे करते हैं। इस क्रम में नारी, वृद्ध, बालक, गरीब, बीमार तथा कमजोर वर्ग जैसे विभाजन प्रस्तुत किये जाते हैं।  इतना ही नहीं इन वर्गों के कथित विकास के लिये अनेक स्वयं सेवी संगठन सक्रिय हो गये हैं। अनेक तो दान और चंदा लेते हैं। इतना ही नहंी चंदा और दान देने वाले भी किसी ऐसे लाभ के लिये यह सब करते हैं जो भविष्य में संभावित होता है।  कुल मिलाकर समाज को उपसमाजों में बांट कर समाज कल्याण का एक ऐसा व्यवसाय स्थापित हो गया है जिसे समझना जरूरी है।
     सभ्यताओं का विकास और विनाश इस प्रकृत्ति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सभ्यताओं में ही समाजों का उत्थान और पतन भी उतना ही स्वभाविक है। समाजों में भी परिवार का गठन और बिखराव होता है। परिवारों में भी मनुष्य जन्मते और मरते हैं। इस प्राकृतिक चक्र के नियमों के विपरीत प्रथक कार्य करने का दावा कोई नहीं कर सकता। जन्म और मृत्यु के बीच हर मनुष्य स्वार्थ के साथ दिन बिताता है।  उसके साथ अपनी दैहिक शक्ति होती है पर वह भी नियमों के अनुसार ही चल सकती है। हर मनुष्य अपनी दैहिक आवश्यकताओं के अनुसार चलने को बाध्य है।
ऐसे में अक्सर यह सवाल आता ही है कि क्या किसी व्यक्ति के राष्ट्र, समाज, परिवार तथा व्यक्ति के निर्माण या विकास के दावे को स्वीकार कर लेना चाहिये? क्या ऐसेे बुद्धिमान पेशेवर चिंत्तकों की इस बात पर यकीन करना चाहिये कि वह गरीबों के लिये सोचते हैं? यकीनन इसका उत्तर ना में ही आता है।  वजह साफ है कि जितनी संख्या में समाज सेवी संस्थायें और उनके पदाधिकारी सेवक इस देश में सक्रिय हैं उसे देखते तो भारत में किसी वर्ग में कोई समस्या ही नहीं रहना चाहिये थी। ऐसा हुआ नहीं और इससे ही यह लगता है कि हमें अपनी समस्याओं के निपटने के लिये स्वयं ही प्रयास करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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