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Sunday, December 07, 2008

रहीम के दोहे:प्रेम की दुर्गम राह पर हर कोई नहीं चल सकता

फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर

कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।

प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं


कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिस तरह सब जगह प्रेम का गुणगान होता है वह केवल बाजार की ही देन है जो युवक-युवतियों को आकर्षित करने तक ही केंद्रित है। उसे प्रेम में केवल वासना है और कुछ नहीं है। सच्चा प्रेम किसी से कुछ मांगता नहीं है बल्कि उसमें त्याग किया जाता है। सच्चे प्रेम पर चलना हर किसी के बस की बात नहीं है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण हो तो वह प्रेम कहां रह जाता है। सच तो यह है कि लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि एक धोखा होता है।
सच बात तो यह है कि लोग प्रेम करने की बात तो करते हैं पर उसका उनके हृदय मेंं कोई स्थान नहीं होता। वैसे तो आपस में दोस्ती और रिश्तेदारी होने से लोग एक दूसरे के संपर्क में रहते हुए प्रेम होने का दावा करते हैं पर जब एक दूसरे से स्वार्थ पूरा नहीं होता तो फिर उन्हीं संबंधों में कटुता आ जाती है। प्रेम में किसी से आशा नहीं करना चहिये पर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी का ऐसी चालें चलते हैं कि कोई उनके प्रेमजाल में फंस जाये। आज की युवा पीढ़ी तो प्रेम का नारा लगाते नहीं थकती और चालाकियों से संपर्क बनाने का कोई उपाय नहीं छोड़ती।

अनेक कथित और गुरु प्रेम को लेकर तमाम तरह की बातें करते हैं पर वह स्वयं नहीं जानते कि वह होता क्या बला है? ऐसे कथित अध्यात्मिक गुरू बस अपने से ही प्रेम करते हैं और अपने शिष्यों के साथ उनका प्रेम एक तरह से ढोंग ही होता है।
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Saturday, December 06, 2008

रहीम सन्देश:किसी की परवाह न कर अपनी राह चलें

कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय


कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।


इतना ही नहीं जब अपने मार्ग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमीेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।

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Friday, December 05, 2008

रहीम सन्देश:जहां सदाचार न हो वहां नहीं ठहरें

रहिमन रहिबो वा भलो जो लौं सील समूच
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच


कविवर रहीम कहते हैं कि वही रहना ठीक है जहां लोगों में शील और सदाचार का भाव है। जहां इसमें कमी दिखाई दे वहां से हट जाना चाहिए।

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागे बार
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार


कविवर रहीम कहते हैं कि अधर्म से प्राप्त धन को नष्ट हाने में समय नहीं लगता। होली के अवसर पर लोग चोरी की लकड़ी लाते हैं पर उसको जलकर रख होने में क्षण भी नहीं लगता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-वैसे तो देखा जाय बुरे लोग तो रहीम जी के समय में ही रहे हैं इसलिये तो उन्होंने ऐसी बातें कहीं हैं जो आज भी प्रासंगिक लगतीं हैं। एक बात जरूर है कि उस समय आवागमन के साधन इतना तीव्र नहीं थे इसलिये आदमी अधिकतर अपने सीमित क्षेत्र में ही जीवन व्यतीत करता था। वर्तमान में कई कारणों से अपने मूल स्थान से दूर जाना पड़ता है और ऐसे में भले और बुरे दोनों प्रकार के लोगों का कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हुआ है अतः दुष्ट लोग अपराध कर अपने क्षेत्र आसानी से बदलने लगते हैं ताकि दूसरी जगह उनकी पहचान न हो पाये। कई जगह तो उनकी बहुतायत हो जाती है और उससे लगता है कि इस दुनियां में भलाई और सदाचार नाम की कोई चीज नहीं है। यह हमारा एक भ्रम है। अगर इस दुनिया से बुराई को लोप नहीं हुआ है तो भलाई का भी नहीं हुआ है। हम अगर ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां दुष्ट और निंदक प्रवृत्ति के लोगों का जमघट है तो हमें वहां से निकल जाना चाहिए। अगर वहां रहेंगे तो हमारे विचारों में दुष्टता का भाव और अधर्म से पैसा कमाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होगी। अधर्म को धन वैसे भी अधिक देर नहीं ठहर जाता और कभी कभी तो वह अपने स्वामी को भी नष्ट कर देता है। अतः कुविचारों की बहुतायत वाले स्थान को त्यागने के साथ अधर्म से धन प्राप्त करने को मोह त्याग देना चाहिए।

Tuesday, December 02, 2008

संत कबीरदास सन्देश: आदमी की पहचान उसके गुणों से ही होती है

ऊंची जाति पपीहरा, पिये न नीचा नीर
कै सुरपति को जांचई, कै दुःख सहै सरीर

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पपीहरा तो एक तरह से ऊंची जाति का दिखता है जो कभी भी नीचे धरती पर स्थित जल का सेवन न कर स्वाति नक्षत्र क जल के लिये याचना देवराज इंद्र से याचना करता है या अपना जीवन त्याग देता है।

पड़ा पपीरा सुरसर, लागा बधिक का बान
मुख मूंदै सुरति गगन में, निकसि गये यूं प्रान


संत शिरामणि कबीरदास जी कहते है शिकारी का बाण लगने से पपीहा नदी में जा गिरा पर इसके बावजूद उसने वहां का जल ग्रहण नहीं किया और उसने अपना मूंह बंद कर ऊपर आकाश में ध्यान लगाया और अपने प्राण त्याग दिये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-देश में ऊंच और नीच को लेकर सदैव विवाद होते रहे हैं। लोग जन्म के आधार पर अपने को ऊंचा और दूसरे को नीचा समझते हैं। यह एक भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि आदमी की पहचान गुणों से है। ऊंची जाति में जन्म लेने के अहंकार में लोग यह मान लेते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है और वह व्यसनों और अपराधों की तरफ बढ़ जाते हैं। जबकि आदमी के गुण ही उसके ऊंची और नीच होने के प्रमाण हैं। गुणवान, धैर्यवान और शीलवान लोग बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी अपने नैतिक आचरण और सिद्धांतों का त्याग नहीं करते जबकि निम्न कोटि के लोग थोड़ी लालच और लोभ में अपना धर्म तक बेचने को तैयार हो जाते हैं। अतः जन्म के आधार पर अपनी जाति का गर्व करने की बजाय आत्म मंथन करते हुए गुणों के आधार पर ही अपने जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
कभी भी व्यक्ति को उसके चेहरे,पहनावे या बोलने के आधार पर उसे ऊंचा या नीचा नहीं समझना चाहिये बल्कि यह देखना चाहिये कि उसके कर्म क्या हैं? क्या वह समाज के हित के लिये काम करता है? क्या वह भगवान की भक्ति हृदये से करता है? क्या वह परोपकार और दार के कार्य में लिप्त रहता है?

अगर आदमी केवल अपने ही स्वार्थ में लिप्त है तो वह किसी काम का नहीं है। कई लोग ऐसे हैं जो काम करने का वादा करते हैं पर बाद में उससे मुकर जाते हैं। मतलब यह है कि आदमी को उसके गुणों के आधार पर पहचानना चाहिये।
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Sunday, November 30, 2008

संत कबीरदास सन्देश:जंग लड़ने वाले नहीं बल्कि मिलबांटकर खाने वाले हैं सच्चे योद्धा

कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Saturday, November 29, 2008

संत कबीरदास सन्देश:कलियुग में होता है मसखरों का सम्मान

कबीर कलियुग कठिन हैं, साधू न मानै कोय
कामी क्रोधी मसखरा तिनका आदर होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अब इस घोर कलियुग में कठिनाई यह है कि सच्चे साधू को कोई नहीं मानता बल्कि जो कामी, क्रोधी और मसखरे हैं उनका ही समाज में आदर होने लगा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम कबीरदास जी के इस कथन के देखें तो हृदय की पीडा कम ही होती है यह सोचकर कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे जो साधू होने के नाम पर ढोंग करते थे। हम अक्सर सोचते हैं कि हम ही घोर कलियुग झेल रहे हैं पर ऐसा तो कबीरदास जी के समय में भी होता था। धर्म प्रवचन के नाम पर तमाम तरह के चुटकुले सुनकर अनेक संत आजकल चांदी काट रहे हैं। कई ने तो फाईव स्टारआश्रम बना लिए हैं और हर वर्ष दर्शन और समागम के नाम पर पिकनिक मनाने तथाकथित भक्त वहाँ मेला लगाते हैं। सच्चे साधू की कोई नहीं सुनता। सच्चे साधू कभी अपना प्रचार नहीं करते और एकांत में ज्ञान देते हैं और इसलिए उनका प्रभाव पड़ता है। पर आजकल तो अनेक तथाकथित साधू-संत चुटकुले सुनाते हैं और अगर अकेले में किसी पर नाराज हो जाएं तो क्रोध का भी प्रदर्शन करते हैं। उनके ज्ञान का इसलिए लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता भले ही समाज में उनका आदर होता हो।
अनेक कथित संत और साधु अपने प्रवचनों के चुटकलों के सहारे लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। लोग भी चटखारे लेकर अपने दिल को तसल्ली देते हैं कि सत्संग का पुण्य प्राप्त कर रहे हैं। यह भक्ति नहीं बल्कि एक तरह से मजाक है। न तो इससे मन में शुद्धता आती है और न ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग करने से आशय यह होता है कि उससे मन और विचार के विकार निकल जायें और यह तभी संभव है जब केवल अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हो। इस तरह चुटकुले तो मसखरे सुनाते हैं और अगर कथित संत और साधु अपने प्रवचन कार्यक्रमों में सांसरिक या पारिवारिक विषय पर सास बहु और जमाई ससुर के चुटकुले सुनाने लगें तो समझ लीजिये कि वह केवल मनोरंजन करने और कराने के लिये जोगी बने है। ऐसे में न तो उनसे लोक और परलोक सुधरना तो दूर बिगड़ने की आशंका होती है।
आदमी के मन को मनोरंजन की आवश्यकता होती है तो उसे कभी अध्यात्मिक भूख भी लगती है उस समय वह अपने आपको जानना चाहता है। कथित संत लोग एक साथ दोनों की कमी पूरी कर समाज में पुजते हैंं। मनोरंजन करने वाले तो केवल अपना काम करते हैं जबकि संत अपने लोगों को अध्यात्मक की आड़ में चुटकुले सुनाकर भटकाते हैं। अध्यात्मिक साधना का मतलब है एकांत में अपने आपसे सहजता से संपर्क कर अपने हृदय को शांत करना।
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Friday, November 28, 2008

चाणक्य नीति:शठ के साथ सख्ती कर ही अपनी रक्षा संभव

1-पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
2-बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधम कार्य माना जाता है।
3-शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
4-उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ के सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है।
5-धूर्तता, अन्याय और बैईमानी आदि से अर्जित धन से संपन्न आदमी अधिक से अधिक दस वर्ष तक संपन्न रह सकता है, ग्यारहवें वर्ष में मूल के साथ-साथ पूरा अर्जित धन नष्ट हो जाता है।
*इसका सीधा आशय यह है कि भ्रष्ट और गलत तरीके से कमाया गया पैसा दस वर्ष तक ही सुख दे सकता है, हो सकता है कि इससे पहले ही वह नष्ट हो जाय।
6- अर्थाभाव में मित्र, स्त्री, नौकर स्नेहीजन भी व्यक्ति का आदर नहीं करते, यदि वही व्यक्ति पुन: संपन्न हो जाये तो अनादर करने वाले फिर आदर करने लगते हैं।

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