आज पूरे विश्व में मित्रता दिवस(फ्रैंडशिप डे-friendship day) मनाया जा रहा है। तय बात है
कि पश्चिम से आयातित यह विचार आधुनिक बाज़ार में-होटल, व्यवसायिक उद्यान तथा आधुनिक
बड़े विक्रय केंद्र-नये ग्राहक जुटाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। पश्चिम में हमेशा ही एकल परिवार के साथ ही
सार्वजनिक सामाजिक संबंधों की दृष्टि से कहीं न कहीं अकेलापन रहा है। इसलिये वहां मित्र तथा रिश्तों से मुलाकात करने
के लिये दिन निकालना पड़ता है। देखा जाये
तो वहां एक मनुष्य का दूसरे से संबंध स्वाभाविक सहज सिद्धांत से नहीं देखे जाते।
भारत में स्थिति अलग है। दो मनुष्य के बीच
संबंध सहज माने जाते हैं। मित्र और रिश्ते
की बात छोड़िये किसी भी सार्वजनिक जगह पर दो व्यक्ति अकेले आते हैं तो बिना किसी
औपचारिकता के आपस में चर्चा के लिये तैयार हो जाते हैं। बस या ट्रेन में यात्रा
करते हुए पता नहीं कितने यात्री आपस में मानवीय आधार पर इस तरह संबंध बनाते हैं
जैसे कि बरसों से एक दूसरे को जानते हैं।
यह अलग बात है कि पथ आते ही वह सभी अलग हो जाते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से मित्रता या अन्य
रिश्तों का कोई दिवस मनाने की कोई प्रेरणा नहीं है क्योंकि हमारे प्राचीन ग्रंथ
सभी जीवों के बीच संबंधों को स्वाभाविक मानते हैं। यही कारण है कि हम भारत में हम
मित्रता दिवस मनाना एक तरह से मजाक समझते हैं।
भारत समाज में मित्रता की दृष्टि
से बाल्य और शैक्षणिक काल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस दौरान जो मित्र बनते हैं
वह बरसों बाद भी जब मिलते हैं तो भाव में ताजगी लगती है। इस काल के बाद बने मित्र केवल स्वार्थ के कारण
बनते और बिगड़ते हैं। हम पश्चिम से आयातित जिस मित्रता दिवस को मना रहे हैं उसमें
एक युवक और युवतियों के बीच ज्यादा देखने की कोशिश ज्यादा होती है। यह अलग बात है
कि कुछ सभ्रांत लोग समय काटने के लिये सार्वजनिक रूप से कार्यक्रम करते हैं पर
बाजार के प्रबंधकों का ध्यान केवल प्रेम संबंधो को मित्रता का जामा पहनाने के
अलावा कुछ नहीं होता।
कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से मित्रता या अन्य
रिश्तों का कोई दिवस मनाने की कोई प्रेरणा नहीं है क्योंकि हमारे प्राचीन ग्रंथ
सभी जीवों के बीच संबंधों को स्वाभाविक मानते हैं।
हमारे यहां मित्रता के रूप में हमेशा ही भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा का
उदाहरण दिया जाता है। किसी के प्रति मित्रता का भाव हृदय में एक बार स्थित हो जाये
तो वह सहजता से विलोपित नहीं होता। इतना ही यह अन्य रिश्तों की तरह इतना गहरा होता
है कि दिमाग में किसी का नाम होता है पर मित्र शब्द नहीं होता। जिस तरह माता, पिता,
भाई तथा बहिन के नाम दिमाग में कभी बजते हैं पर
रिश्ते का स्वर उनमें नहीं होता। कहने का अर्थ है यह है कि संबंध हृदय की गहराई
में होते हैं। घरेलू कार्यक्रमों में मित्रों और रिश्तेदारों को हार्दिक रूप से आमंत्रित
किया जाता है पर उनके लिये रिश्ते के नाम से अलग कार्यक्रम करने की कोई परंपरा
नहीं है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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