एक बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जूनियर जार्जबुश ने विश्व में बढ़ती
महंगाई को भारतीय जनता में व्याप्त अधिक खाने की प्रवृत्ति को बताया था। उस समय अनेक विद्वानों ने इसका मजाक उड़ाया था।
अंतर्जाल पर सक्रियता में नवीन व्यक्ति होने के कारण हमने भी अधिक पाठक बटोरने की दृष्टि से बुश
साहब से अपनी असहमति जताई थी। यह सात वर्ष पहले की बात थी। उस समय निजी टीवी चैनल
और अंतर्जाल दोनों ही संचार जगत में एक नयी शुरुआत कर रहे थे। जैसे जैसे संचार की
शक्ति बढ़ी तो नयी नयी जानकारियां आने लगीं। भारत में इस दौरान खानपान की आदतों में
भारी बदलावा भी आया। उस समय हमने लिखा था कि चूंकि भारत के चाट भंडारों में भीड़
रहती है इसलिये कोई भी यह सोच सकता है कि भारत में लोग खाते बहुत हैं। सात वर्ष बाद अब तो भारत में मॉल के रूप में आधुनिक बाज़ार का रूप
लिया है और आकार में बड़े होने के कारण वहां भी भीड़ अधिक दिखती है। यह अलग बात है
कि वहां खाद्य पदार्थों के अलावा फिल्मों के उपभोक्ता और दर्शक ही अधिक आते हैं।
इस तरह उपभोग प्रवृत्ति में बदलाव तथा उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या किसी विकास का
परिचायक नहीं है क्योंकि इसके पीछे हमारा कोई नवीन निर्माण नहीं है। रोजगार,
स्वास्थ्य तथा नैतिक आचरण का पैमाना बहुत नीचे चला
गया है। कर्ज लेकर घी पीने के जिस सिद्धांत पर समाज चला है उसे देखकर तो अब विदेशी
यह भी कह सकते हैं कि भारतीय कमाते कम हैं खाते ज्यादा हैं।
सब कुछ बदला है पर यहां के धनपितयों की प्रवृत्ति जस की तस है। खाद्य
पदार्थों में मिलावट तथा पहनने ओढ़ने में नकली सामान बनाने की वही कहानी अब भी जारी है। पहले बाज़ार से
अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों में मिलावट के समाचार आते थे पर अब तो एक टीवी
समाचार चैनल ने प्लास्टिक के चावल बनने की बात कहकर हैरान ही कर दिया है। हम सभी
जानते हैं कि अन्न से मन और मन से मनुष्य का अस्तित्व है। अगर इसी तरह अन्न से
प्लास्टिक का मेल होने की बात आगे बढ़ी तो फिर हमें शुद्ध मनुष्य ढूंढना ही मुश्किल
हो जायेगा।
हमने पहले भी कहा था और अब भी कह रहे हैं कि भारत में प्रकृत्ति की कृपा
अन्य देशों से कहीं अधिक है। यहां भूजल का
बेहतर स्तर, हर तरह के अन्न की फसल और विभिन्न खनिजों संपदा को देखकर कोई नहीं कह सकता
कि भारत अभिशप्त देश है। यह अलग बात है कि यहां लोभ की ऐसी प्रवृत्ति है कि कोई
धनपति अपनी कमाई से संतुष्ट होने की बजाय दूसरे के मुंह से निवाला निकालकर या
खींचकर अपनी तरफ करने पर ही प्रसन्न होता है। यही कारण है कि हमारा देश सब कुछ
होते हुए भी गरीब और अविकसित कहा जाता है। मजे की बात यह है कि जितना अज्ञानी
समुदाय है उससे ज्यादा ज्ञानी लोगों का समूह है।
शायद यही कारण है कि यह देश चल रहा है। अज्ञानी के लोभ की प्रवृत्ति के
बावजूद ज्ञानियों का त्याग भाव हमारे देश को बचाये हुए है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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