समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, February 18, 2014

मन चंगा हो तो कठौती में गंगा की अनुभूति होती है-हिन्दी धार्मिक चिंत्तन(man changa ho to kathauti mein ganga ki anubhuti hotee hai-hindi dharmik chinttan)



      इस समय सर्दी का मौसम चल रहा है। कहने को बसंत ऋतु आ गयी है पर अचानक बर्फबारी होने से शीतलहर का प्रकोप पहले से अधिक हो गया है। ऐसे में बर्फीले पर्यटन स्थलों पर सैलानियों के उमड़ने की खबर आती है तो हैरानी नहीं होती।  हमारे देश में जिंदगी से उकताये लोगों की कमी नहीं है। जिंदगी से वही लोग उकताते हैं जिनके पास पैसा खूब है पर करने के लिये कुछ नही है। गरीब या मध्यम वर्ग के लोगों की जिंदगी का संघर्ष प्रतिदिन चलता है और देखा जाये तो इसमें उनके लिये मनोरंजन भले ही न हो पर दिमाग को व्यस्त रखता है। इसलिये वह अपने मस्तिष्क में ं इधर उधर भागकर मन बहलाने का विचार तक नहीं ला पाते।  दूसरे वह लोग भी उकताये रहते हैं जो सुबह भ्रमण नहीं करते या फिर अपने शहर को ही समझ पाते।  यह विचार इस लेखक के एक मित्र के पर्यटन से लौटने के बाद इस टिप्पणी के बाद उपजे जिसमें उसने कहा कि ‘‘देाा जाये तो बाहर जाकर घूमने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि इतना आनंद तो हम अपने शहर में ही लेते है। बाहर जाकर घूमने का तनाव होने के बाद घर लौटने पर हुई थकान से तो यह सीखा जा सकता है।
      देखा जाये तो ठंड हमेशा ही देह की संवेदनक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव डालती है यानि नर्वस सिस्टम पर शीत लहर का बुरा प्रभाव होता है।  जुकाम, खांसी और बुखार की संभावना अधिक रहती है।  सर्दी  में स्वेटर, टोपा और हाथ के दास्ताने पहनकर स्कूटर पर रात को निकलना एक तरह से स्वयं स्वीकारी सजा की तरह लगता है।  हमारा घर मुख्य शहर के  बाहरी इलाके में है जहां गर्मी और सर्दी की हवायें अब शरीर को भारी कष्ट देती हैं। अब यह उम्र का परिणाम है या वातावरण प्रदूषित होने से कि हमारा मौसम से संघर्ष होता ही है।  गर्मी में जब शाम को सात बजे घर लौटते हैं तो गर्म हवायें ऐसी लगती हैं जैसे कि भट्टी के पास से निकल रहे हों। अब तो यह लगने लगा है कि कार लें तभी सामान्य रूप से बाहर निकल पाये। दूसरा उपाय यह है कि स्कूटर की बजाय हम ऑटो या पैदल सफर करें।   कहने का अभिप्राय यह है कि अब या तो अमीरों के लिये या फिर गरीबों के लिये ही मौसम रह गया है।  मध्यम वर्ग के लिये वैसा ही संकट है जैसा कि आजकल भारतीय अर्थव्यवस्था की वजह से उसके घर का है।
      उस दिन हम एक दिन के लिये दिल्ली प्रवास पर थे।  वहां ऐसा नहीं लगा कि जैसे कहीं बाहर घूम रहे हैं।  अनेक बार ऐसा लगा कि अपने शहर में ही घूम रहे। सड़कें, घर और मंदिरों को देखकर कोई नया आकर्षण पैदा नहीं हो रहा था।  घर लौटे तब याद आया कि हम दिल्ली से लौटे हैं। तब संत रविदास का यह संदेश ध्यान आया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। सुबह योग साधना और उद्यान का भ्रमण करना की दिनचर्या अगर बाधित हो तो हमारा मन खराब हो जाता है। ऐसे में कहीं बाहर जाना पड़े तो हमारे लिये मनोरंजन का धन ऋण पत्रक बराबर ही रहता है।  एक तरह से कहें तो वह ऋणात्मक यानि माइनस हो जाता है। वैसे देखा जाये तो सरस्वती माता की कृपा होने से जो यह लिखने की कला मिली है उसके आगे कोई भी प्राकृतिक उपहार मूल्यवान नहीं लगता।  हमारे लिये लिखना सत्संग की तरह हो गया है। पहले सत्संग में जाकर जो आनंद मिलता था वह लिखने से मिलता है।  हमने एक सत्संगी के मुख से सुना था कि अपनी घोल तो नशा होय। टीवी पर जब कोई मनोरंजक कार्यक्रम देखते हैं तो लगता है कि वक्त खराब करने की बजाय इंटरनेट पर एक कविता ही लिख डालें।
      हालांकि कहते हैं कि कंप्यूटर का नशा भी बुरा है। हालांकि हमें यह पता है पर फिर भी लगता है कि जायें तो कहां जायें? इससे निजात पाकर फुर्सत हो तो हो ध्यान लगाकर इससे प्राप्त विकृतियों का विध्वंस करते हैं। ध्यान लगाने से  कंप्यूटर से हुई थकान तुरंत फुर्र हो जाती है।  यही कारण है कि हमारा चिंत्तन चलता रहता है उसी से इस बात की अनुभूति  हुई कि इंसान के मन के सौदागर बहुत है और वह विभिन्न विषयों का सृजन इस तरह करते हैं कि किसी को इस बात का पता ही नहीं चले कि सत्य से असत्य की तरफ कैसे जा रहा है?
      अनेक मिलने वाले लोग आकर देश के प्रसिद्ध मंदिरों में चलने का प्रस्ताव देते हैं हम हां तो करते हैं पर मन नहीं करता।  जितने भी प्रसिद्ध सर्वशक्तिमान के रूप हैं उनके बड़े मंदिर हमारे शहर में ही हैं। हम अक्सर वहां जाकर ध्यान लगाकर अपने मन की प्रसन्नता पा ही लेते हैं।  हमारे मित्र लोग जो ऐसे मंदिरों पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं दरअसल वह कभी इस तरह अपने अवकाश का उपयोग नहीं करते। अवकाश के दिन भी वह सासंरिक विषयों में उसी तरह समय बिताते हैं तब उनको कहां शांति मिलनी है?
      जब इस तरह का चिंतन हमारे मन में चलता है तब संत रविदास की याद आती है जिन्होंने का मन का विज्ञान बताने वाला यह मंत्र दिया था मन चंगा तो कठौती में गंगा।उनकी जयंती हाल ही में मनायी गयी थी। उनकी यह एक पंक्ति ही संसार का सच बयान कर देती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

No comments:

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें