भौतिक साधनों के नितांत उपभोग से जहां लोगों में बौद्धिक तीक्ष्णता का प्रमाण
मिलता है वहीं सुविधा के संपर्क से मस्तिष्क के आलस्य से आंतरिक चेतना शक्ति भी कम हो रही है। प्रश्न यह नहीं है कि लोग उपभोग से विरक्त क्यों
नहीं हो रहे वरन् समस्या यह है कि लोग अपने मस्तिष्क को विराम नहीं दे रहे। उपभोग की
एकरसता के बीच उन्हें अध्यात्मिक रस का आनंद लेने की इच्छा होती है पर ज्ञान के अभाव
में वह पूरी कर नहीं पाते। मन की कामनायें,
अर्थ का अनर्थ से भरा मोह तथा आकर्षक वस्तुओं को देखने
की नितांत इच्छा के बीच मनुष्य को थकाने वाला मनोरंजन मिल जाता हे पर उससे उबरने की
इच्छा अंततः निराशा कर देती है।
अष्टावक्रगीता में कहा गया है कि-----------विहाय वैरिणं काममर्थ चानर्थसङ्कुलम्।धर्ममप्येतयोहेंतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।हिन्दी में भावार्थ-वैर स्वरूप कामनायें तथा अनर्थ से भरे अर्थ का त्याग कर रूप धर्म को भी छोड़कर उनकी उपेक्षा करें।
अध्यात्मिक चेतना के लिये कुछ समय सांसरिक विषयों की उपेक्षा करना होती है। मन की चंचलता को नियंत्रित कर स्वयं में दृष्टा
का भाव लाना हो्रता है। उपभोग की तरफ केंद्रित
प्रवृत्ति का निवृत्ति मार्ग अपनाये बिना दृष्टा होना सहज नहीं है। हम मिठाई खायें या करेला वह पेट में अंततः कचड़ा
ही बनता है जिसका निष्कासन हमें करना ही है।
उसी तरह दृश्यों का भी है। मनभावन हो या सताने वाला दृश्य आंखें देखती हैं पर
दोनों ही अंततः मन में तनाव का कारण बन जाते हैं। उन्हें भुलाकर निष्पादन करना आवश्यक
है। जो धन आया है उसमें से हम जितना व्यय करते हैं वही सार्थक है जो बचा रहा वह निरर्थक
हैं। जिसका हम उपयोग नहंी कर उस धन पर अहंकार
करना व्यर्थ है। हम धन का सेवक के रूप में
उपभोग करते हैं न कि वह हमारा स्वामी है जिसे हम अपने मस्तिष्क पर धारणकर घूमें। जीवन निर्वाह के लिये उपभोग सीमा के बाद कामना, अर्थ और रूप की उपेक्षा
करना ही योग है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Good One : Jagruk Times
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