21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सभी देशों में आयोजनों की तैयारियां चल रही हैं। अनेक प्रकार की चर्चायें चल रही हैं पर उनका संबंध इसके दैहिक लाभ से ही है। इसके अध्यात्मिक शक्ति मिलने की बात बहुत कम लोग कर रहे हैं। योग साधक भी अनेक प्रकार हैं। एक तो वह जो कभी कभार ही करते हैं। दूसरे वह जो अक्सर करते हैं। ऐसे योग साधकों की संख्या नगण्य है जो इसे नियमित करते हैं। जिन लोगों के लिये यह एक आदत या नशा है पर मौसम की परवाह नहीं करते है। हम जैसे योग साधकों के लिये तो यह सुबह का नशा है। प्रातः अगर शुद्ध वायु का सेवन न करें तो पूरा दिन ऐसा लगता है जैसे कि नींद से उठे ही नहीं।
हमारी दृष्टि से तो योग साधना के अभ्यास से शरीर का तेल निकल जाता है-डरने की बात नहीं जब हम पूर्ण साधना कर लेते हैं तब शरीर में मक्खन बनने की अनुभूति भी आती है। गर्मी में तो हवा चलती है इसलिये थोड़ी राहत मिलती है पर जब वर्षा ऋतु में बादल मुंह फेरे रहते हैं तब तो आसनों के समय पसीना इस तरह निकलता है कि चिढ़ भी आने लगती है। शरीर में गर्मी लाने वाले आसनों से उस समय परहेज की जा सकती है पर तब यह आदत छूटने की आशंका से यह विचार छोड़ना पड़ता है।
इस समय चहूं ओर योग साधना की बात हो रही है। अंग्रेजी महीना जून और भारतीय माह आषाढ़ एक साथ चल रहे हैं। जब हम योग साधना करते हैं तब 21 जून विश्व योग दिवस वाली बात तो भूल ही जाते हैं। कभी कभी हवा राहत देती है तो कभी शरीर में इतनी उष्णता लगती है कि सोचते हैं जितना कर लिया ठीक है। फिर हवा चलती है तो धीरे धीरे अपनी साधना भी बढ़ती है। अंत में जब मंत्र जाप करते हैं तो मन में यह उत्साह पैदा होता है कि चलो हमने किसी तरह अपनी साधना तो पूरी कर ली। स्नान और पूजा से निवृत होकर जब चाय पीते समय टीवी पर कहीं योग का कार्यक्रम देखते हैं तभी ध्यान आता है कि हम भी यही कर आ रहे हैं। इन कार्यक्रमों में योग स्थान देखकर लगता है कि काश! हम भी वहीं जाकर साधना करें। अब उन स्थानों तक पहुंचने के लिये रेल या बस यात्रा तो करनी ही होगी-तब यह सोचकर खुश होते हैं कि जहां भी कर ली वहीं ठीक है।
आमतौर से लोग सुबह के भ्रमण या व्यायाम को योग के समकक्ष रखते हैं पर यह दृष्टिकोण उन्हीं लोगों का है जो इसे केवल शारीरिक अभ्यास के रूप में पहचानते हैं। हमने अपने अभ्यास से तो यही निष्कर्ष निकाला है कि योग साधना के नियमपूर्वक आसन, प्राणायाम और ध्यान करने से मानसिक तथा वैचारिक लाभ भी होते हैं। अनेक लोग इसे धर्मनिरपेक्ष बताकर प्रचारित कर रहे हैं जबकि हमारी दृष्टि से योग स्वयं एक धर्म है। विश्व में जितने भी संज्ञाधारी धर्म है वह वास्तव में आर्त भाव में स्थिति हैं जिसमें सर्वशक्तिमान से जीवन सुखमय बनाने के लिये प्रार्थना की जाती है। समय के साथ मनुष्य सांसरिक विषयों में निरंतर लिप्त रहने के कारण कमजोर हो जाता है इसलिये वह अपना मन हल्का करने के लिये आर्त भाव अपना लेता है जबकि योग से न केवल ऊर्जा का क्षरण रुकता है वरन नयी स्फूर्ति भी आती है इसलिये मनुष्य आर्त भाव की तरफ नहीं जाता। इसलिये वह सर्वशक्तिमान से याचना की बजाय उसे अध्यात्मिक संयोग बनाने का प्रयास करता है। यही कारण है कि सभी कथित धार्मिक विद्वान इसके केवल शारीरिक लाभ की बात कर रहे हैं ताकि लोग अध्यात्मिक रूप से इस पर विचार न करें।
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