ओले तथा असमय बरसात ने भारत के ग्रामीण अंचलों में बुरा प्रभाव डाला है।
फसल नष्ट होने से बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या के समाचार आये हैं। यकीनन अधिकतर किसान मध्यमवर्गीय से जुड़े
होंगें। बड़े किसानों के ढेर सारे व्यवसाय
भी होते इसलिये उन्हें इस हानि की चिंता नहीं होती। खेतिहर मजदूर भी दूसरी जगह
खेती कर काम चला लेते हैं। संकट मध्यम वर्गीय किसान का है जिसके पास अपनी जमीन है
और वह उसी पर निर्भर है। उस पर वह अपने घर के काम काज के साथ बीज आदि के लिये कर्ज भी लेता है जिनका
सीधा संबंध उनकी फसल से होता है। वही नष्ट हो गयी तो उसके सामने अपनी सामाजिक
प्रतिष्ठा खोने का भय आता है जिससे वह तनाव ग्रस्त होकर आत्महत्या करता है या फिर
दिल के दौर से मर जाता है।
देखा जाये तो जिस तरह शहर और गांवों की दूरी मिट रही है वैसे ही दोनों जगह
का मध्यम वर्ग भी तनाव की राह पर जा रहा है।
शहर भले ही गांव से अधिक चमकदार दिखते हैं पर आधुनिक सुविधायें-टीवी, मांेबाईल तथा कंप्यूटर
अब गांव में में पाये जाने लगे हैं-गांवों में भी पहुंच रही हैं। उसके साथ ही इनके
साथ आने वाली मानसिक बीमारियां भी वहां अपना घर बना रही हैं। अभी तक हम भौतिक सुविधाओं से शहर वालों के
मानसिक रोगी होने की बात कहते थे पर गांवों में भी-जहां के निवासियों के परिश्रम
तथा संघर्ष की शक्ति पर यह देश टिका है-शहरों जैसा मानसिक तनाव निवास करने लगा है।
आधुनिक
वैश्विक व्यवस्था में मध्यम वर्ग का संघर्ष पहले से अधिक कहीं कठिन हो गया है।
पैसा उसके पास अधिक नहीं होता पर सामान्य सुख सुविधाओं की उसके पास उपस्थिति उसे
धनिक प्रचारित करती हैं तो समाज भी उसे प्रतिष्ठित लोगों जैसे व्यवहार की आशा करता
है। इसके लिये धन होना आवश्यक है और मध्यम वर्ग कहीं से ऋण लेकर या संपत्ति बेचकर
अपने सामाजिक दायित्वों को निभाना चाहता है।
जब सरकारी नौकरियों की बहुतायत थी तब एक स्थिर मध्यम वर्ग का निर्माण हुआ
था जिसे अपनी नियमित आय की आशा तो रहती थी।
उदारीकरण के चलते अब निजी क्षेत्र में मध्यम वर्ग के लोग अपना रोजगार ढूंढ
रहे हैं। निजी क्षेत्र में रोजगार के स्थायित्व का अभाव रहता है। यही मध्यम वर्ग
धर्म, संस्कृति, कला तथा सामाजिक परंपराओं के निरंतर प्रवाह में सबसे अधिक
सहायक है। हमारे देश में मध्यम वर्ग की अस्थिरता के चलते हम किसी भी समाज मूलतत्व
बचने की आशा नहीं कर सकते। हमारे यहां
गरीब, मजदूर, महिला, वृद्ध, बालक तथा किसान कल्याण के नारे लगते हैं पर जिस मध्यम
वर्गीय पुरुष से समाज की रक्षा हो सकती है उसका संघर्ष इतना बढ़ा हो गया है कि वह
घर परिवार से आगे कुछ सोच भी नहीं सकता। ऐसे में जो धर्म, संस्कृति और समाज के नारे लगा रहे हैं उन्हें पहले देश की
व्यवस्था में ऐसे तत्व लाना चाहिये जिससे मध्यम वर्ग स्थिर रह सके। मध्यम वर्ग से
कलाकार, पत्रकार, लेखक, वकील, शिक्षक तथा बौद्धिक लोग संरक्षित होते है तभी वह समाज के
लिये काम करता है। अगर उसे अपने भरोसे
रहने के लिये कहा जाये तब यह अपेक्षा छोड़ देना चाहिये कि समाज के लिये अपना समय और
श्रम व्यय कर पायेगा।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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