ओला वृष्टि से 14 राज्यों की खेती पर बुरा प्रभाव हुआ है। उत्तर भारत का एक बहुत बड़ा भाग
अभी उस भयावह स्थिति से बेखबर है जो भविष्य सामने आने वाली है। हमारे देश ने कितना भी औद्योगिक विकास किया हो
पर आज भी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान ही मानी जाती है। ओला वृष्टि से फसल बर्बाद
की स्थिति में ग्रामीण तथा कृषिकर्म
पृष्ठभूमि से जुड़ा समाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है और आगामी महीनों में उसके
दुष्परिणाम अधिक दिखने लगेंगे। अभी तक कृषि कर्म से जुड़े लोग जीवट माने जाते रहे
हैं पर खराब आर्थिक ंिस्थति के चलते अनेक आत्महत्या की घटनायें सामने आ रही हैं।
कुछ सामाजिक विशेषज्ञ अपराधों की संख्या में भारी वृद्धि की आशंका व्यक्त भी कर
रहे हैं। देश के शहरों में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा कदाचार
की घटनायें बढती रही हैं फिर भी समाज कभी इतना अस्थिर नहीं दिखा क्योंकि वह हमारे
समाज का मूल आधार ग्रामीण अंचल में स्थित रहा है।
इस बार प्रकृति का प्रहार हमारे मूलाधार चक्र पर हुआ है।
अनेक लोगों की स्मृतियों में यह पहली ऐसी ग्रीष्म ऋतु है जो प्रारंभ से ही
त्रास लायी है। पूर्व में जब गर्मी आती थी
तब किसान लोग फसलें काटकर बाज़ार में बेचने जाते थे। फिर विवाहों के मौसम के चलते
लोगों का समय ठीक से निकल जाता था। जून में कुछ समय तक गर्मी चरम पर पहुंचती थी तब
आर्तनाद मचता था पर अंततः बरसात आकर सब शांत कर देती थी। जिसके चलते जुलाई, अगस्त तथा सितम्बर की
उमस अपना प्रभाव दिखाती थी पर लोग झेल जाते थे। आज के हालत में लगता है कि अक्टूबर
तक निरंतर चलने वाला यह त्रास अनेक लोगों के लिये बहुत दर्दनाक होगा। वैसे हमें
नहीं लगता कि सामान्य कृषकों के लिये अपना कर्म
कभी अधिक फलदायक रहा हो पर इस बात
तो हद ही हो गयी लगती है।
किसानों की हालत पर हमारे देश में बहुत विलाप होता दिख रहा है पर जिन लोगों
को उनके लिये काम करना है उन्हें शायद इसकी परवाह नहीं है इसलिये ऐसी घटनायें
समाने आ रही है जो दर्दनाक है। कभी कभी तो लगता है कि किसानों की मदद तथा उसकी
जमीन की रक्षा की बात वह लोग करते हैं जो उनके सबसे अधिक शोषक है। ऐसे शोषकों के
पास ढेर सारी जमीन है और वह इस बात से विचलित रहते हैं कि कहीं वह चली न
जाये। सामान्य किसानों के पास कितनी जमीन
है और कितने मजदूरों को जमींदार कहकर प्रचारित किया जाता है इसका तो सर्वेक्षण
होना चाहिये। हमारा मानना है कि किसान की मदद और उसकी जमीन की रक्षा का नारा वही
ज्यादा देते है जिनके पास बहुत सारी जमीन है। वहां की फसल खराब हो या अच्छी उसकी
परवाह नहीं होती बल्कि कहीं वह जमीन किसी शासकीय उद्देश्य के लिये चिन्हित न हो
जाये यही भय उनको सताता है इसलिये किसी भी सुधार या विकास का विरोध वह इस तर्क के
साथ करते हैं कि वह किसान विरोधी है। अपना तर्क वजनदार बनाने के लिये वह गरीब तथा
मजदूर शब्द भी जोड़ देते हैं। एक बार सामान्य तथा विशिष्ट किसानों के बीच जमीन के
बंटवारे का अनुापत निकाला जाये तो पता चल जायेगा कि किसके पास कितनी जमीन है?
हम अगर
देश के हालातों को देखें तो गरीब, किसान, या मजदूर के हित की बात पर सार्वजनिक विषय पर चर्चा केवल मन
बहलाव के लिये होती है पर इससे जुड़े सक्रिय लोगों के कर्म कभी इस बात का प्रमाण
नहीं देते कि बेबस का भला होता है। कभी
कभी तो विपरीत स्थिति होती है कि कागज पर नाम गरीब का है पर पैसा अमीर ले जाता है।
बहरहाल हम यह स्पष्ट कर देते हैं कि ओलावृष्टि की मार से प्रभावित लोगों को जल्दी
से जल्दी मदद मिलना चाहिये। अब शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा दूरी नहीं
है और अंततः ग्रामीण लोगों का संकट पलायन करता हुआ जब शहरी क्षेत्रों में आयेगा तब
जो त्राहि त्राहि मचेगी उससे प्रचार माध्यमों को सनसनीखेज खबरों समेटते हुए थकावट
हो जायेगी।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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