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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, March 20, 2015

परीक्षा में छात्रों को अध्ययन की किताब लेने की छूट देकर ही नकल की बुराई से मुक्ति पायें-हिन्दी चिंत्तन लेख(pariksha meih adhyayan kee chhoot dekar hi nakal se mukti paayen-hindi thought article)




          बिहार में माध्यमिक मंडल की परीक्षा के दौरान नकल करने और कराने के जो दृश्य टीवी चैनलों पर देखने को मिले वह कम से कम हमें नहीं चौंकाते हैं। इसका कारण यह है कि यह समस्या उतनी ही पुरानी लगती है जितनी हमारी शिक्षा पद्धति।  मुख्य बात यह है कि हमारे यहां अध्ययन किताब से सर्वांगीण विकास के लिये कराया जाता है पर परीक्षा के समय केवल स्मरण शक्ति या कहें रटने की कला का ही परीक्षण होता है। हम कबीर, रहीम, तुलसी या मीरा के दोहों को कभी रटकर नहीं सुना पाये पर उनका अर्थ हमेशा ही दिमाग में बसा रहा।  कैसे? हम किसी को बुरा नहीं कहते क्योंकि  पता है कि जब अपनी बुराईयां ढूंढेगे तो सबसे बुरे स्वयं ही लगेंगे। अब यहां कबीर का बुरा जो देख मैं चलावाला दोहा कहने की आवश्यकता नहीं लगती।  हम परीक्षा के समय जिस शब्द को रट लेते थे तो केवल इतना ही ध्यान रखते थे वह वैसे ही लिखें जैसा किताब में है-इस दबाव में उस शब्द के अर्थ का भाव रखना संभव नहीं था। एक तरह से किताब से संबंध शब्द रटने से अधिक था।  हिन्दी में लिखना तो हमने शैक्षणिक काल में प्रारंभ किया पर रहीम, कबीर, तुलसी और चाणक्य के संदेशों पर मंथन बहुत समय बाद प्रारंभ किया।  अध्ययन के दौरान कभी इन महानुभावों के प्रति सद्भाव दिमाग में नहीं आया क्योंकि वहां तो केवल इनके पवित्र शब्द रट कर लिखने थे।  समझ से उस परीक्षा का कोई संबंध नहीं था
          हमने अनेक लोगों को नकल करते देखा है।  अपने ही समकालीनों को अपने से कम योग्य छात्रों को अधिक नंबर पाते देखा है। इसमें कुछ किस्से तो ऐसे भी आये कि छात्रों ने किसी प्रश्न के उत्तर मेें दूसरे की नकल की और अपना रटा भूलना बेहतर समझा। बाद में पता चला कि उससे गलती हुई।  कुछ विद्वान तो यह तक कहते हैं कि इस तरह की स्मरण शक्ति की परीक्षा लेना ही व्यर्थ है वरन् इसकी बजाय परीक्षा के दौरान किताबें ले जाने की छूट छात्रों को दी जाये।  जब हमने देखा है कि नौकरी की परीक्षा के लिये अलग से परीक्षायें होती हैं और उसमें इस शिक्षा का कोई लाभ केवल प्रमाण पत्र के रूप में ही है तब छात्रों की स्मरण शक्ति की परीक्षा बेकार है।
          हमारा तो मानना है कि विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा तो केवल साक्षर और विद्वान बनाने के लिये ही समझा जाना चाहिये।  जब किताबें ले जाने की छूट होगी तब छात्र दूसरे दाव पैंच नहीं लगायेंगे।  यहां यह भी बता दें कि किताब के आधार पर भी प्रश्न के उत्तर ढूंढना तब ज्यादा कलात्मक हो जाता है जब विषय सामग्री में व्यापकता होती है।  सभी छात्र उत्तर एक जैसा लिखें यह संभव नहीं है। अलबत्ता प्रतिभावान छात्रों के सामने तब रट्टा लगाने का तनाव नहीं होगा और वह सामान्य छात्रों से अधिक बेहतर उत्तर लिख पायेंगे।  हमारा मानना है कि स्मरण शक्ति का प्रतिभा से अधिक संभव नहीं है। बल्कि जो ज्यादा प्रतिभावान होते हैं वह अपने शब्दों का रट्टा लगाने की बजाय उसके अर्थ तथा भाव से ज्यादा संबंध स्थापित कर लेते हैं।
          इस सुझाव का विरोध शिक्षा व्यवसाय से जुड़े लोग अवश्य करेंगे क्योंकि तब ट्यूशन और नकल का धंधा चौपट हो जायेगा-अनुमान है कि यह व्यवसाय भी हजारों करोड़ों का है।  व्यवसाय चौपट हो जायेगे तो उससे एक वह दो नंबर में धन कमाने वाले दलाल भी निष्क्रिय होंगे जो कि हमारे समाज में प्रतिष्ठित हैं।  इससे भी आगे हमारे यहां कुछ ऐसे उदारवादी विद्वान है जो मानते हैं कि हर छात्र को नियमित शिक्षा देकर बिना परीक्षा ही उपाधि देना चाहिये क्योंकि उससे होना जाना कुछ नहीं है।  नौकरी के लिये अलग से परीक्षायें होती हैं-अनेक विद्वान तो वहां भी किताबें ले जाने की छूट देने की बात करते हैं-क्योंकि वह मानते हैं कि अनेक नकल कर पास होने वाले छात्र किताब पास होने पर सारी चौकड़ी भूल ही जायेंगे। ले देकर मुर्गे की एक ही टांग!  इससे शैक्षणिक मध्यस्थों का व्यवसाय चौपट आयेगा और अच्छे नंबर दिलाने के नाम छात्र और छात्राओं का शोषण संभव नहीं रहेगा-जिनके सहारे अनेक लोग अपनी समाज में छवि बनाये हुए हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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