निर्भया बलात्कार कांड पर बनाये गये बीबीसी के लघुवृत्त चित्र पर इतना
हंगामा मचना इस बात का प्रमाण है कि हमारे देश में लोगों में धैर्य के साथ किसी
विषय पर चिंत्तन कर उस पर अपने विचार व्यक्त करने की प्रवृत्ति का अभाव है। इस
लघुवृत्त चित्र के बारे में हम जैसे आम लोगों को जानकारी तभी मिली जब पर चारों तरफ
हंगामा मचा। इस हंगामे का यह परिणाम हुआ
कि बीबीसी ने यह वृत्त चित्र निर्धारित तारीख से चार दिन पहले प्रसारित कर
दिया। प्रचार जगत में समय का महत्व होता
है और चार दिन पूर्व प्रसारण की यह प्रेरणा भारत में मचे हंगामें से बीबीसी को
मिली। हमारे यहां का हंगामा एक तरह से इसी
वृत्त चित्र के लिये अधिक दर्शक जुटाने में एक विज्ञापन की तरह मददगार हुआ।
इससे पहले ही भी एक मुंबईया फिल्म में कथित रूप से हिन्दू धर्म के कथित
अपमान को लेकर बवाल मचा। उसमें भी हंगामाकार
उसके लिये दर्शक जुटाने में सहायक हुए। इन
दोनों प्रकरणों में हमारे जैसे स्वतंत्र और मौलिक चिंतक मानते हैं कि हंगामा नहीं
होता तो बीबीसी का वृत्त चित्र और कथित मुंबईया फिल्म एक तरह से फ्लाप शो साबित
होते। हमारी चिंत्ता इस बात की नही है कि
प्रचार माध्यम इस तरह की योजना बनाते होंगे जिससे आमजन फंस जाता है बल्कि जिस तरह
भारत में संस्थागत आधार पर ऐसे विवादों
में विज्ञापन का काम होता दिखता है वह परेशानी का कारण है। टीवी चैनल अपना विज्ञापन का समय पास करने के
लिये भले ही इस तरह तरह के तयशुदा आयोजन करें।
उन पर कहना बेकार है पर जिस तरह अनेक सामाजिक तथा धार्मिक संस्थायें अपने
साथ की भीड़ चौराहों पर लाकर उनकी सहायक बनती हैं वह दुःख से अधिक गुस्से का कारण बनता
है।
इस पर अधिक लिखने से कोई फायदा नहीं है पर हमारी सलाह है कि कभी कभी
उपेक्षासन भी कर लिया करो। कौटिल्य के
अर्थशास्त्र में उपेक्षासन करने का सिद्धांत है। अपनी बहिन रुकमणी हरण के समय
भगवान श्रीकृष्ण के साथ युद्ध में पराजित होने पर रुक्मा ने यही आसन किया था। हमारे यहां का मनोरंजन क्षेत्र अजेय है। उसे
अंदर बाहर से हर की शक्ति प्राप्त है। इस
पेशे में लोग विवाद के माध्यम से अपनी विक्रय सामग्री के लिये ग्राहक जुटाते हैं।
उन्हें हराना कठिन है। क्रुद्ध होकर हम
उनके कटाक्षों पर टिप्पणियां या प्रदर्शन कर उनके ही जाल में फंसते हैं। न उनके वृत्त चित्र रुकते हैं न फिल्म बंद होती
है। कभी कभी तो हंगामा बचने से नवधानाढ्य तथा मनोरंजन के भूखे लोग बिना सोचे
समझे दर्शक बनकर उन्हें हिट बनाते हैं।
विरोधी लोग क्रुद्ध होकर अपना खून
जलाते हैं पर नतीजा वही ढाक के तीन पात! हमारे
यहां अनेक कथित ज्ञानी हैं जो दावा करते
हैं कि उन्हें भारतीय ग्रंथों का पूरा ज्ञान है पर जिस तरह सतही विषयों पर भडकते
हैं उससे नहीं लगता कि उनका दावा सही है।
हमारी उनको भी सलाह है कि वह कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा चाणक्य नीति का
अध्ययन करना चाहिये। हमारा मानना है कि
मौन की तरह उपेक्षासन भी काम का विषय है।
जिन विवादों में हार निश्चित है वहां से मुंह फेर लेना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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