आज के विज्ञापन युग में प्रचार माध्यम पैसा लेकर अनेक प्रतिष्ठित लोगों को
देवता बना देते हैं। इतना ही नहीं अब तो
ऐसे कथित स्वयंभू समाजसेवी हो गये हैं जो धनिकों से चंदा लेकर गरीब तथा बेसहारा
लोगों में दानवीर बन जाते हैं। देश में
अनेक अशासकीय स्वयंसेवी संगठन बन गये हैं जिनके शीर्ष पुरुष यह दावा करते हैं कि
वह निष्काम भाव से समाज सेवा कर रहे हैं।
यह अलग बात है कि वह समाज सेवा के लिये प्राप्त धन से ही अपने गृह खर्च
चलाते हैं। उससे ही समाज सेवा के लिये
यात्रायें करते हैं। अपनी जेब से
पैसा निकालकर खर्च करने की बात तो वह स्वयं
कहते भी नहीं है जो कि वास्तव में निष्काम भावी होने का प्रमाण होता
है। अगर हम ऐसे समाजसेवी संगठनों की
संख्या देखें तो हमारे देश में गरीबो, मरीजों तथा बेसहारा लोगों की संख्या नगण्य रहना चाहिये पर आंकड़े इस को
प्रमाणित नहीं करते।
भर्तृहरि नीति शतक
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किं तेन हेमगिरिणा रजतांद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रवेणा कङ्कोलनिन्बकुटजा अपि चन्दनाः स्यूः।।
हिन्दी में भावार्थ-उस स्वर्ण पर्वत सुमेरु और रजत पर्वत हिमालय से भी क्या लाभ जहां के पेड़ तो पेड़ रहते है। हम तो उस मलय पेड़ को महान मानते हैं जिसके आश्रय में रहने वाले कंकोल, नीम और कुटज आदि वृक्ष चंदनमय हो जाते हैं।
भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में अंधविश्वासों का कोई स्थान नहीं है यह अलग बात
है कि पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने कर्मकांडों के नाम पर अनेक प्रकार के
अंधविश्वास समाज में स्थापित कर दिये हैं जिसे लोग चाहे अनचाहे उनका बोझ ढोते
हैं। इन अंधविश्वासों के विरुद्ध अनेक
कथित विद्वान अभियान भी छेड़ देते हैं पर उनका प्रभाव इसलिये नहीं होता क्योंकि वह
भारतीय अध्यात्म के तत्वज्ञान का अध्ययन नहीं करते। उन्हें लगता है कि केवल नारे लगाने से लोग उनकी
बात मान लेंगे। ऐसे लोग भी अपने अभियान के
लिये चंदा लेते हैं। हमारी दृष्टि में तो
अगर अंधविश्वास समाप्त करना है तो सत्य का विश्वास कायम करना चाहिये पर यह भी
निश्चित है कि पेशेवर लोगों के लिये समाज में भावनात्मक परिवर्तन लाना सहज नहीं
है। भावनात्मक परिवर्तन के लिये हार्दिक
प्रयास आवश्यक हैं जिसे आर्य अर्जन की भावना होने पर सहजता से नहीं किया जा सकता।
ऐसे में धन्य है वह लोग जो प्रचार से परे होकर समाज में न केवल निष्काम भाव
से सेवा करते हैं वरन् हार्दिक भाव से उनमें ज्ञान का प्रचार करते हैं। इन्हीं लोगों की वजह से आज भी भारतीय समाज की
पहचान विश्व में बनी हुई है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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