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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, January 18, 2015

विभिन्न मतों के द्वंद्वों से दूर रहकर ही शांति प्राप्त करना संभव-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख(vibhinna maton ke dwandwa se door rahakar hee shandi prapat karna sambhav-a Hindu hindi religion thought based on ashtawakra geeta)



            ऐसा लगता है कि भारत में कुछ कथित प्रतिष्ठित और प्रतिष्ठित धार्मिक ठेकेदारों ने  तय कर लिया है कि वह अपनी अज्ञान पूर्ण वाणी से हिन्दू धर्म के विषय को हास्य सामग्री बनाये बिना मानेंगे नहीं।  कोई भारतीय नारियों को चार तो कोई दस बच्चे पैदा करने का उपदेश दे रहा है।  उनकी दृष्टि एक तरह से हर भारतीय हिन्दू नारी बच्चे उत्पादिन करने वाली एक जीवित मशीन है-हम जैसे अध्यात्मिक योग तथा ज्ञान साधक को यह देखकर हैरानी होती है कि तत्व ज्ञान रखने का दावा करने वाले यह लोग भारतीय समाज को मूर्ख बताकर अपनी अंधबुद्धि का ही प्रदर्शन कर रहे हैं।
            हमारे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में दृश्यव्य मनुष्य, प्रकृति तथा उनके मूल व्यवहार के सिद्धांतों के साथ ही अदृश्यव्य परमात्मा की चर्चा भी व्यापक रूप से की गयी है। मूल रूप से यह माना गया है कि तत्व ज्ञानी ही सुख की अधिकारी है क्योंकि वह विषयों में निर्लिप्त भाव से सीमित  अपनी इंद्रियों का सीमित संपर्क स्थापित करता है।  अपना कार्य पूर्ण होने पर वह अपना संपर्क समाप्त कर देता है।  ऐसे में यह कथित गेरुए वस्त्रधारी जब तामसी प्रवृत्ति धारण कर समाज की ठेकेदारी करते हैं तो यह चिंता होती है कि तत्व ज्ञान की वजह से हमारा देश पूरे विश्व में  जाना जाता है, कहीं इन लोगों की वजह से यहां की संस्कृति हास्य व्यंग्य का विषय न बन जाये।
अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि
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नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।
दृष्टवा निर्वेदमापन्न को न शाम्यति।।
            हिन्दी में भावार्थ-महर्षियों, साधुओ और योगियों के अनेक मत होते हैं। इन मतों के  द्वंद्वों से दूर रहने वाला कौन व्यक्ति है जो शांति को प्राप्त नहीं होता।
            यह सही है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में योगी, सात्विक, राजसी तथा तामसी प्रवृत्तियों के मनुष्यों की उपस्थिति स्वीकार की  गयी है पर सबसे अधिक शक्तिशाली ज्ञान योगियों को माना गया है। वह समाज के बृहद आकार करने की चिंता की बजाय उसे ज्ञान से शक्तिशाली बनाने का प्रयास करते हैं।  ज्ञान का फल सुख और शंाति है।  कथित गेरुए वस्त्रधारी स्वयंभू को सन्यासी लोगों में राजसी और तामसी भाव बढ़ाने वाली प्रेरणा देते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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