1 जनवरी 2015 से नया ईसवी संवत या अंग्रेजी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। हालांकि हमारे यहां
कैलेंडर इसी अंग्रेजी वर्ष के आधार पर ही छपते हैं पर इन्हीं कैलेंडरों में ही
भारतीय संवत् की तारीखें भी सहायक बनकर उपस्थित रहती हैं। दूसरी बात यह है कि हमारे यहां भारतीय संवत्
अनेक भाषाई, जातीय तथा क्षेत्रीय समाज अलग अलग तरीके से मनाते हैं इससे ऐसा लगता है कि
इसे मानने वालों की संख्या कम है पर इतना तय है कि भारतीय संवत् ने अभी अपना महत्व
खोया नहीं है। फिर हमारे यहां नवधनाढ्य, नवप्रतिष्ठित तथा
नवशिक्षित लोगों को समाज से अलग दिखने की प्रवृत्ति होती है-इसे हम नवअभिजात्य
वर्ग भी कह सकते हैं। हमारे यहां अंग्रेज चले गये पर अपने प्रशंसक छोड़ गये जिनकी
पीढ़ियां नव संस्कार का बोझा ढो रही है।
नये पुराने का अंतद्वंद्व हमारे जैसे अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये व्यंग्य
का सृजक बन गया है। हिन्दी भाषा के वाहक
समाचार पत्र तथा टीवी चैनल को अब केवल अपनी भाषा की क्रियायें ही उपयोग करते है
जिस कारण उसे संज्ञा और सर्वनाम के लिये
वह बिना झिझक अंग्रेजी करने में जरा भी शर्म नहीं होती। नवअभिजात्य वर्ग को प्रसन्न
रखने से ही उनका व्यवसायिक उद्देश्य पूरा होता है।
हमारे देश में भौतिकता के बढ़ते प्रभाव के कारण एक ऐसे नवअभिजात्य समाज का
निर्माण हुआ है जिसके लिये संस्कार, आस्था और धर्म शब्द
नारे भर हैं। अंतर्मुखी चिंत्तन की
प्रक्रिया से दूर बाह्य आकर्षण के जाल में फंसे इस नये समाज को वस्तु, व्यक्ति तथा विषय में परिवर्तित रूप से संपर्क की चाहत प्रबल रहती है। वह इस संपर्क के संभावित प्रभाव का अनुमान किये
बिना ही अनुसंधान करने की क्रिया को को जीवन का आधार मानता है।
31 दिसम्बर की रात्रि को नववर्ष के आगमन में मौज मस्ती की थकावट के बाद 1 जनवरी को प्रातः का उगता सूरज देखना सभी के लिये सहज नहीं है। 31 दिसम्बर की रात्रि के
दौरान ही 12 बजे नया वर्ष आता है। यह उस घड़ी
से प्रकट होता है जो अंग्रेजों की ही देन है।
यह अच्छी देन है पर उसमें रात्रि 12 बजे तारीख बदलने की
बात स्वीकार करना अंग्रेजी सभ्यता की पहचान है।
भारतीय कैलेंडर की तारीख प्रातः तीन बजे बदलती है-ऐसा एक विद्वान ने बताया
था। हमारे देश में ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले लोग आज भी तीन बजे ही नींद से उठते
हैं। उनका नींद से उठना ही तारीख बदलना
है। जब जागे तभी सवेरा! जागे तो फिर सोते नहीं काम पर चलना होता
है। अंग्रेजी वर्ष मनाने वाले जागते हुए
दिन बदलते हैं और फिर सो जाते हैं। सुबह
लाने वाला सूरज उन्हें नहीं निहारता।
हमारे देश में संस्कार किसी एक नियम पुस्तक से नहीं चलते। नियमों का कोई
दबाव नहीं है। व्यक्ति के पास अनेक विकल्प
हैं। वह कोई भी विकल्प चुन सकता है। अपने
कर्म से वह कितनी भौतिक सफलता प्राप्त करता है यह चर्चा का विषय हो सकता है पर
किसी के लिये आदर्श नहीं बन सकता। आदर्श
वह बनता है जो दूसरों को भी सफलता के लिये प्रेरित करे। दूसरों की सफलता पर भी
हार्दिक रूप से प्रसन्न प्रकट करे। नवअभिजात्य वर्ग के लिये केवल अपनी सफलता और
उसका प्रचार ही एक ध्येय बन गया है। अब
समाज कथित रूप से अभिजात्य और पिछड़ा दो
वर्गों में दिखता है। सुविधा के लिये हम
कह सकते हैं कि एक गाड़ी के दो पहिये हैं पर सच यह है कि दोनों के बीच विरोधाभास
है। कथित अभिजात्य वर्ग धन, पद और प्रतिष्ठा के मद में मदांध होकर शेष समाज को पिछड़ा मानता है। पिछड़ा
उसकी इस दृष्टि से अपने अंदर घृणा का भाव पाले रहता है। यह द्वंद्व हमेशा रहा है
पर नव संस्कृति के प्रभाव ने उसे अधिक बढ़ा दिया है। यही कारण है कि जहां सभी जगह अभिजात्य स्थानों पर नव वर्ष की बधाई
का दौर चलता है वहीं उनसे परे होकर रहने वालों के लिये एक दिन के आने और जाने से
अधिक इसका महत्व नहीं होता। हमारे देश में
ऐसे ही लोगो की संख्या ज्यादा है। तब एक देश में दो देश या एक समाज में दो समाज के
बीच का विभाजन साफ दिखाई देता है।
प्रस्तुत है इस
अवसर पर एक कविता
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शराब पीते नहीं
मांस खाना आया
नहीं
वह अंग्रेजी नये
वर्ष का
स्वागत कहां कर
पाते हैं।
भारतीय नव संवत्
के
आगमन पर पकवान
खाकर
प्रसन्न मन होता
है
मजेदार मौसम का
आनंद भी उठाते
हैं।
कहें दीपक बापू
विकास के मद में,
पैसे के बड़े कद
में,
ताकत के ऊंचे पद
मे
जिनकी आंखें
मायावी प्रवाह से
बहक जाती हैं,
सुबह उगता सूरज
देखते से होते
वंचित
रात के अंधेरे
को खाती
कृत्रिम रौशनी
उनको बहुत भाती है,
प्राचीन पर्वों
से
जिनका मन अभी
भरा नहीं है,
मस्तिष्क में
स्वदेशी का
सपना अभी मरा
नहीं है,
अंग्रेजी के नशे
से
वही बचकर खड़े रह
पाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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