इस संसार में योग सभी कर रहे हैं-कोई स्वेच्छा से सहज योग में तल्लीन
है तो कोई परवश असहज योग में फंसा है। आम
तौर से योग साधक और सामान्य जन में अंतर नहीं दिखता पर तत्वज्ञान होने पर इसका
आभास स्वाभाविक रूप से होता है। नित्य
प्रतिदिन योग साधक अपने अभ्यास से जैसे जैसे प्रवीण होते हैं उन्हें लगने लगता है
कि उनके सपंर्क में आने वाले लोग उनकी अपेक्षा कुछ भिन्न हैं। कभी कभी योग साधकों को अपने अंदर सहजता का भाव
यह विचार उत्पन्न होने सताने लगता है कि उनके मस्तिष्क में सांसरिक विषयों के
प्रति वैसी रुचि नहीं है जैसे सामान्यजनों में प्रकट दिखती है।
इसलिये योग साधकों को श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कर तत्वज्ञान प्राप्त
करना चाहिये। मनुष्य देह त्रिगुणात्मक
माया के बंधन में है। इस देह में स्थित
बुद्धि और मन बाह्य विषयों से प्रभावित होकर कार्य करती है। इसलिये देह स्वामी बाह्य विषयों, वस्तुओं और व्यक्तियों
से अपने स्वार्थ भाव होने से बाध्य होकर जुड़ता है। यह असहज योग की स्थिति है जो प्रारंभ में उसे
अमृत तुल्य लगती है मगर कालंातर में उसका प्रभाव विषैला ही रहता है। इसके विपरीत योग साधक अभ्यास करते हुए बौद्धिक
प्रवीणता होने पर बाह्य विषयों के उचित अनुचित का भेद करने के बाद अपनी सामान्य आवश्यकता पूर्ति होने तक ही उनसे
जुड़कर अपना काम निकलने के बाद में विरक्त
हो जाता है। योग साधक किसी एक वस्तु, विषय और व्यक्ति से
जुड़कर अपना संपूर्ण जीवन दाव पर नहीं लगाता।
पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है
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निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद।
हिन्दी में भावार्थ- विचार के अभाव रखने की प्रवीणता अध्यात्म का प्रसाद होता है।
महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि
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प्रज्ञाप्रासादमारुह्यशोच्यः शोचतो जनान्।
भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान् प्राज्ञोऽनुपश्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-ज्ञान के प्रसाद पर चढ़कर विषयों में आसक्ति से रहित विद्वान सांसरिक विषयों में कष्ट भोग रहे सामान्य जनों को ऐसे ही देखता है जैसे पहाड़ पर चढ़ने वाला नीचे चल रहे लोगों को देखता है।
जैसे जैसे योग साधक अभ्यास करता है वैसे वैसे उसे सामान्य जनों के अनेक
कार्य अज्ञान से किये गये लगते हैं। योगाभ्यास और अध्ययन से जुड़ने पर मनुष्य को
ज्ञान रूपी जो प्रसाद मिलता है वह अनुपम हैं।
उसके अंतर्चक्षु इस तरह खुल जाते हैं कि उसे अच्छे और बुरे की पहचान करने
में अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ता। किसी
कार्य के परिणाम का वह पहले ही अनुमान कर लेता है न कि फल के अच्छे होने की कामना
लेकर जीवन के युद्ध में बिना किसी योजना के उतरकर कष्ट उठाता है। इतना ही नहीं वह
अंधेरे में तीर चलाने वालों को देखकर हंसता भी है। हम आजकल समाज में मानसिक, शारीरिक तथा वैचारिक
दृष्टि से विकारों से युक्त लोगों की बढ़ती संख्या देखकर यह अनुमान कर सकते हैं कि
लोगों ने मन बुद्धि और विचार भौतिकवाद के पास गिरवी रख दिये हैं। वह बाहर से सुख अंदर आने की कामना करते हैं
जबकि ज्ञानी जानते हैं सुख एक अनुभूति है जिसे हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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