अभी हाल ही में शैक्षणिक जगत में संस्कृत को एच्छिक भाषा के रूप में पढ़ाने
के एक सरकारी निर्णय पर प्रचार माध्यमों
ने बहुत शोर मचाया था। दरअसल हमारे यहां
आजादी के बाद प्रगतिशील तथा जनवादी लेखकों के प्रभाव के चलते बौद्धिक क्षेत्र में
एक ऐसी विचाराधारा का निर्माण हुआ है जो मानती है कि मुगल, फ्रांसिसी और अंग्रेजों के आने से पहले यहां का समाज असभ्य था। आज की सभ्यता विदेशी कृपा का परिणाम है। भारतीय
अध्यात्मिक दर्शन को एकदम असभ्य तथा जंगली मान लेने की प्रवृत्ति के कारण हमारे
देश के व्यवसायिक बौद्धिक क्षेत्र में ऐसे लोगों की बहुलता है जिनको अंग्रेजी, जर्मन,
फ्रैंच महान भाषायें लगती हैं तो संस्कृत बीते समय
की एक खंडहर लगती है।
हमारे देश में समाज का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंटा है। एक तो जिसने आधुनिक शिक्षा प्राप्त की पर आज भी वह भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के आधारों पर चलना पसंद करता है दूसरा वह है जो पूरी तरह से अंग्रेेज दिखना चाहता है। भारतीय बौद्धिक क्षेत्र में ऐसे ही लोगों की बाहुल्ता है। यही कारण है कि शिक्षा पद्धति में जहां भी प्राचीन भारतीय तत्व जोड़ने का विचार आता है वहां उसका विरोध प्रारंभ हो जाता है।संत कबीर कहते हैं कि-----------धरती अम्बर न हता, को पंडित था पास।कौन मुहूरत था थापिया, चांद सूरज आकास।।हिन्दी में भावार्थ-जब न धरती थी न यह आकाश तब कौन सा पंड़ित था जब आकाश में सूरज और आकाश स्थापित किये गये।पढ़ि पढ़ि और समुझावई, खोजि न आप सरीर।आपहि संशय में पड़े, यूं कहि दास कबीर।।हिन्दी में भावार्थ-किताब पढ़कर स्वयंभू विद्वान दूसरों को समझाते हैं पर उन्हें अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता। वह तो स्वयं ही संशय में पड़े रहते हैं।
हमारे देश में बौद्धिक क्षेत्र में सक्रिय पेशेवर लोग स्वयं को सिद्ध मानते
हैं। आधुनिक शिक्षा में संपन्न होने के
बाद धनवान, उच्च पदस्थ तथा कुशल बौद्धिक प्रबंधकों के सानिध्य की वजह से उनको लगता है
वह पश्चिमी तात्विक ज्ञान धारण करने में सक्षम हो गये हैं और भारतीय ज्ञान तो केवल
उन पेशेवर संतों की पूंजी है जिन पर अक्सर वह सनसनी खेज सामग्री प्रसारित करने का
अवसर पाते हैं। समाज सुधार के प्रति अपनी निष्ठ यह लोग इस तरह दिखाते हैं कि उनसे
पहले कोई ऐसा प्रयास नहीं हुआ। हमारे देश
के ही अध्यात्मिक विद्वानों ने समय समय पर देश के अंधविश्वासों तथा रूढ़वादिता को
निशाना बनाया है यह बात उनके समझ में नहीं आती।
यह अलग बात है कि इन बुद्धिमानों के सानिध्य में ही प्रचार माध्यम ज्योतिष
के नाम पर अंधविश्वास का प्रचार करते हैं।
अपनी व्यवसयिक बाध्यताओं को वह छिपाते हैं पर अंततः वह बाहर दिख ही जाती
हैं। एक तरफ समाज सुधार से कथित प्रतिबद्धता का पाखंड दूसरी तरफ विज्ञापनों
प्रसारण की बाध्यता कि बीच इनका सतही ज्ञान सहजता से देखा जा सकता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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