आज श्री गुरुनानक देव जी का 546 वां प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। गुरूनानक देव जी ने
भारतीय अध्यात्मिक परंपरा की रक्षा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वैसे
तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन प्रारंभ से ही तत्वज्ञान धारण कर उसक अनुसार जीवन जीने
के संदेश देता है पर कथित विद्वान इसकी आड़ में कर्मकांडों के नाम पर समाज को
अंधविश्वास की तरफ ढकेल देते हैं। श्रीगुरुनानक देव ने इन्हीं अंधविश्वासों पर
प्रहार करते हुए हृदय से परमात्मा की भक्ति करने की जो प्रेरणा के साथ ही समाज के
कमजोर तथा गरीब वर्ग की सहायता की जो प्रेरणा दी वह अनुकरणीय है।
श्रीगुरुनानक देव जी ने स्वयं किसी धर्म की स्थापना नहीं की।
उनके बाद आये
गुरुओं ने अपने समय की संक्रमित स्थितियों को देखकर सिख पंथ की स्थापना का भी भारतीय धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिये ही की थी। श्रीगुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज चिंतन और सुधार में बीता। बहुत कम लोग हैं जो आज
के सभ्य भारतीय समाज में उनकी भूमिका का सही आंकलन कर पाते हैं। उनके काल में भारतीय
समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। कहने को लोग भले ही समाज की रीतियां निभा रहे थे पर
अपने धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिये
उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। राजनीतिक रूप से विदेशी आक्रांता अपना दबाव इस देश पर बढ़ा
रहे थे। इन्हीं
आक्रान्ताओं के साथ आये कथित विद्वान सामान्य जनों को अपनी विचारधारा के अनुरूप माया मोह की तरफ
दौड़ाते दिखे। देश
के अधिकतर राजाओं का जीवन प्रजा की भलाई की बजाय अपने निजी राग द्वेष में बीत रहा था। वह राज्य के व्यवस्थापक
का कर्तव्य निभाने की बजाय उसके उपभोग के अधिकार में अधिक संलग्न थे। यही कारण था कि जन
असंतोष के चलते विदेशी राजाओं ने उनको हराने का सिलसिला जारी रखा। इधर सामान्य लोग भी
अपने कर्मकांडो
में ऐसे लिप्त रहे उनके लिये ‘कोई
नृप हो हमें का हानि’ की नीति ही सदाबहार थी।
मुख्य विषय यह था कि समाज धीरे धीरे विदेशी
मायावी लोगों के जाल में फंसता जा रहा था और अपने अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति
उसका कोई रुझान नहीं था। ऐसे
में महान संत श्री गुरुनानक देव जी ने प्रकट होकर समाज में अध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया वह
अनुकरणीय है। वैसे
महान संत कबीर
भी इसी श्रेणी में आते हैं। हम इन दोनों महापुरुषों का जीवन देखें तो न वह केवल रोचक,
प्रेरणादायक और समाज के लिये कल्याणकारी
है बल्कि सन्यास के नाम पर समाज से बाहर रहने का ढोंग करते हुए उसकी भावनाओं का दोहन करने वाले ढोंगियों के लिये एक
आईना भी है| गुरुनानक देव और कबीरदास जी के भक्त ही उनका ज्ञान धारण कर इस असलियत को समझ सकते
हैं। इन
दोनों महापुरुषों ने पूरा जीवन समाज में रहकर समाज के साथ व्यतीत किया। भारतीय अध्यात्मिक संदेश अपने पांवों पर अनेक स्थानों घूमते हुए सभी जगह फैलाया। श्री गुरुनानक देव जी तो मध्य एशिया तक की
यात्रा कर
आये।
श्री गुरुनानक देव जी के सबसे निकटस्थ शिष्य मरदाना को माना जाता है जो कि जाति से मुसलमान थे। आप देखिये गुरुनानक देव जी के तप का प्रभाव कि उन्होंने अपना पूरा जीवन गुरुनानक जी के सेवा में गुजारा। इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि मरदाना ने कभी अपना धर्म छोड़ने या पकड़ने का नाटक किया। दरअसल उस समय तक धर्म शब्द के साथ कोई संज्ञा या नाम नहीं था। मनुष्य यौनि मिलने पर संयम, परोपकार, दया तथा समभाव से जीवन व्यतीत किया जाये-यही धर्म का आशय था।
श्री गुरुनानक देव जी के सबसे निकटस्थ शिष्य मरदाना को माना जाता है जो कि जाति से मुसलमान थे। आप देखिये गुरुनानक देव जी के तप का प्रभाव कि उन्होंने अपना पूरा जीवन गुरुनानक जी के सेवा में गुजारा। इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि मरदाना ने कभी अपना धर्म छोड़ने या पकड़ने का नाटक किया। दरअसल उस समय तक धर्म शब्द के साथ कोई संज्ञा या नाम नहीं था। मनुष्य यौनि मिलने पर संयम, परोपकार, दया तथा समभाव से जीवन व्यतीत किया जाये-यही धर्म का आशय था।
आज धर्मों के जो नाम मिलते हैं वह पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों एक
सोचीसमझी साजिश के तहत समाज को बांटकर उस पर शासन करने की नीति का परिणाम है।
श्रीगुरुनानक देव जी के समय इस देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से संक्रमण काल था। वह जानते थे कि भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति ही इस समाज के लिये सबसे बड़ा खतरा है, जिसमें धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इससे व्यक्ति की चिंतन क्षमता का ह्रास होता है और वह बहिर्मुखी होकर दूसरे का गुलाम बन जाता है। भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता मनुष्य को दास बना देती है। अधिक संचय की प्रवृत्ति से बचते हुए दान, सेवा और परोपकार करने से ही समाज समरसता आयेगी जिससे शांति और एकता का निर्माण होगा-यही उनके संदेशों का सार था। सबसे बड़ी बात उनका जोर व्यक्ति निर्माण पर था। हम अगर इस पर विचार करें तो पायेंगे कि व्यक्ति मानसिक रूप से परिपक्व, ज्ञानी और सजग होगा तो भले ही वह निर्धन हो उसे कोई भी दैहिक तथा मानसिक रूप से बांध नहीं सकता। यदि व्यक्ति में अज्ञान, अहंकार तथा विलासिता का भाव होगा तो कोई भी उसे पशु की तरह बांध कर ले जा सकता है। आज हम देख सकते हैं कि टीवी चैनलों पर कल्पित पात्रों पर लोग किस तरह थिरक रहे हैं। उसी में अपने नये भगवान बना लेते हैं। कई युवक युवतियों यह कहते हुए टीवी पर देखे जा सकते हैं कि हम तो अमुक बड़ी हस्ती को प्यार करते हैं। यह अध्यात्मिक ज्ञान से दूरी का परिणाम है। इसलिये आवश्यकता इस बात है कि बजाय हम इस बात पर विचार करें कि दूसरे धर्म के लोग हमारे विरोधी हैं इस बात पर अधिक जोर देना चाहिये कि हमारे समाज का हर सदस्य दिमागी रूप से परिपक्व हो। अध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व युवक हो युवती समाज रक्षा में सहयोगी नहीं बन सकते।
श्रीगुरुनानक देव जी के समय इस देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से संक्रमण काल था। वह जानते थे कि भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति ही इस समाज के लिये सबसे बड़ा खतरा है, जिसमें धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इससे व्यक्ति की चिंतन क्षमता का ह्रास होता है और वह बहिर्मुखी होकर दूसरे का गुलाम बन जाता है। भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता मनुष्य को दास बना देती है। अधिक संचय की प्रवृत्ति से बचते हुए दान, सेवा और परोपकार करने से ही समाज समरसता आयेगी जिससे शांति और एकता का निर्माण होगा-यही उनके संदेशों का सार था। सबसे बड़ी बात उनका जोर व्यक्ति निर्माण पर था। हम अगर इस पर विचार करें तो पायेंगे कि व्यक्ति मानसिक रूप से परिपक्व, ज्ञानी और सजग होगा तो भले ही वह निर्धन हो उसे कोई भी दैहिक तथा मानसिक रूप से बांध नहीं सकता। यदि व्यक्ति में अज्ञान, अहंकार तथा विलासिता का भाव होगा तो कोई भी उसे पशु की तरह बांध कर ले जा सकता है। आज हम देख सकते हैं कि टीवी चैनलों पर कल्पित पात्रों पर लोग किस तरह थिरक रहे हैं। उसी में अपने नये भगवान बना लेते हैं। कई युवक युवतियों यह कहते हुए टीवी पर देखे जा सकते हैं कि हम तो अमुक बड़ी हस्ती को प्यार करते हैं। यह अध्यात्मिक ज्ञान से दूरी का परिणाम है। इसलिये आवश्यकता इस बात है कि बजाय हम इस बात पर विचार करें कि दूसरे धर्म के लोग हमारे विरोधी हैं इस बात पर अधिक जोर देना चाहिये कि हमारे समाज का हर सदस्य दिमागी रूप से परिपक्व हो। अध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व युवक हो युवती समाज रक्षा में सहयोगी नहीं बन सकते।
इस देश की मुख्य समस्या यह है कि मनुष्य ही
मनुष्य का पशु रूप में दोहन करता है।
ऐसे एक नहीं हजारों संदेश है जो आज के संदर्भ में ही उतने प्रासंगिक हैं जितने उनके इस धरती पर प्रकट रहते हुए थे। ऐस महान संत श्री गुरुनानक देव जी का स्मरण करने मात्र से हृदय प्र्फुल्लित हो उठता है। उनका जीवन इसलिये भी प्रेरक है क्योंकि उन्होंने उसे सामान्य मनुष्य की तरह बिताया। ऐसे महान संत को कोटि कोटि प्रणाम। वाहे गुरु की जय, वाहे गुरु की फतह।श्री गुरुनानक देव जी ने इसी तरफ इशारा करते हुए कहा है कि--------------------------
‘जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।’
हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य का ही रक्त पीता है उसका चित कैसे निर्मल हो सकता है।
‘खावहि खरचहि रलि मिलि भाई।
तोटि न आवै वधदो जाई।।;;
हिंदी में भावार्थ- भाई, सभी मिलकर खर्च करो और खाओ। इससे टोटा नहीं पड़ता बल्कि वृद्धि होती है।’
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका
८.हिन्दी सरिता पत्रिका
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