समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, January 30, 2014

स्वार्थी का लक्ष्य प्रेम करना नहीं होता-तुलसी दर्शन पर आधारित चिंत्तन(swarthi ka lakshya prem karna nahin hota-tulsi darshan par aadharit chinntan lekh )



      हम अक्सर दूसरे लोगों के व्यवहार पर टीका टिप्पणियां करते हैं।  किसी में गुण दिखता है तो प्रसन्नता होती है और किसी में दोष देखते हैं तो उस पर क्रोध भी आ जात है। आमतौर से सामान्य लोग दूसरों में दोष ही देखते हैं।  समाज में परनिंदा का फैशन पुराना है। विरले ही ऐसे सज्जन मिलते हैं जो किसी की प्रशंसा करते मिलेंगे। स्थिति यह है कि लोग एक दूसरे के मित्र होते हुए भी प्रशंसा नहीं करते। इसके विपरीत पीठ पीछे अपने ही मित्रों की ऐसे लोगों के सामने निंदा करते हैं जो उनके स्वयं के मित्र नहीं होते।
      एक बार इस लेखक की भेंट एक कंपनी में कार्यरत उच्च अधिकारी मित्र से हुई थी।  उस मित्र ने अपने ही कार्यालय की एक कथा सुनाई।  वहां दो कार्यरत कर्मचारी आपस में  अच्छे मित्र थे। दोनों के पारिवारिक संबंध थे।  एक मित्र मध्यम पद तो दूसरा छोटे पद पर था।  मध्यम पद पर कार्य करने वाला मित्र निरीक्षक होने के कारण अपने कर्मचारी मित्र को अपने काम के सिलसिले में कभी टोकता भी तो इस बात का आभास नहीं देता था कि वह उसका अधिकारी है।  दोनों अच्छा काम करते थे इसलिये हमारे प्रबंधक मित्र को उनसे कोई परेशानी भी नहीं थी। दोनों भोजनावकाश में साथ खाना खाते और चाय भी पीने जाते थे। जब उनसे जुड़ा काम होता तो वह दोनों ही अपने प्रबंधक मित्र से मिलने आते थे।
      एक बार उनके काम में कोई कमी आयी। तब हमारे प्रबंधक  ने निरीक्षक मित्र को बुलाया। उससे काम के सिलसिले में कमी की बात की तो उसने पूरा दोष अपने कर्मचारी मित्र पर डाला।
      प्रबंधक ने सरल भाव से कहा-‘‘ठीक है, वह तो आपका मित्र है। संभाल लीजिये।’’
      होना तो यह चाहिये था कि वह निरीक्षक स्वीकृति में सिर हिलाकर चला जाता पर उसने कहा-‘‘साहब, कैसा मित्र? वह तो मजबूरी है, साथ काम करते हैं इसलिये निभाना पड़ता है, वरना मैं उसे पसंद नहीं करता।’’
      उसने कर्मचारी मित्र की इतनी बुराईयां की कि प्रबंधक दंग रह गया।  उत्सुकतावश उसने कर्मचारी मित्र को बुलाया।  उसने अपने काम का पूरा दोष प्रबंधक पर डाल दिया।  कमोवेश उसने भी निरीक्षक मित्र के प्रतिकूल उतनी ही  बातें कहीं जितना वह प्रबंध से कर गया था।
      उनके व्यवहार पर हमारे प्रबंधक मित्र ने हमसे टिप्पणी करते हुए कहा-‘‘यार, अगर वह चाहते थे तो प्रसंग इतना अप्रिय नहीं था जिस पर वह अपनी पुरानी मित्रता की पोल मेरे जैसे उस व्यक्ति के सामने नहीं खोलते जो जिसे उनके कार्यालय में न अधिक समय आये हुए था न अधिक वहां रहने वाला था।  आज नहीं तो कल मेरा स्थानांतरण वहां से होना ही था। मैंने मित्रता का जो वहां पाखंड वहां देखा वह मेरे मन को आज तक तकलीफ देता है।’’
संत  तुलसीदास कहते है कि
----------------
लखि गयंद ले चलत भजि, स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार, महिमा जान कि राड़।।
              सामान्य हिन्दी में भावार्थ-हाथी को देखकर कुत्ता सूखी हड्डी ऐसे लेकर दौड़ पड़ता है कि वह उसे छीन लेगा। वह हाथी के गुण , मूल स्वभाव और आहार की प्रकृत्ति को नहीं जानता।
कै निदरहु कै आदरहु, सिंघहि स्वान सिआर।
हरण विषाद न केसरिहि, कुंजर, कुंजरगंज निहार।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-कुत्ते, सियार और सिंह का आदर करें या सम्मान उनको परवाह नहीं होती।  हाथी का शिकार करने पर सिंह को दुःख या हर्ष नहीं होता।
      कहने का अभिप्राय यही है कि आम मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह स्वार्थ की वजह से अनेक प्रकार के संबंध निभाता है। हम अनेक बार ऐसे लोगों की उपेक्षा से दुःखी हो जाते हैं जिनका काम हमने कभी किया था।  हम यह भूल जाते हैं कि अनेक लोगों ने अनेक अवसरों पर हमारा काम किया होता है पर उनकी याद हमें नहीं आती। यह संसार का नियम है कि काम निकलने के बाद हम अनेक प्रकार के सामान फैंक देते हैं और उन व्यक्तियों से स्वाभाविक रूप से परे हो जाते हैं जिन्होंने हमारा कभी साथ दिया।  सच बात तो यह है कि सच्चा संबंध वही है जो स्वार्थ की वजह से हुआ जरूर हो पर उसकी नियमित स्थिति निराधार हो। शिक्षा, कार्यस्थल या किसी अन्य कारण से बने संबंध तभी शुद्ध रह पाते हैं जब उनमें स्वार्थ की पूर्ति से हार्दिक प्रेम हो। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

No comments:

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें