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Saturday, August 07, 2010

पतंजलि योग सूत्र-सार्वभौमिक भाव मनुष्य को शक्तिशाली बना देता है (libral men is powar ful-patanjali yoga sootra in hindi)

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मूलतः मनुष्य इस संसार में अकेला ही होता है और इसी भयावह अनुभूति से बचने के लिये वह तमाम तरह के पाखंड रच लेता है। इसी कारण विश्व में अनेक प्रकार के जातीय, भाषाई तथा धार्मिक समूह बन गये हैं जिसमें रहकर हर मनुष्य अपने अदंर एक काल्पनिक सुरक्षा का भाव पालता है। दरअसल वह इस सच्चाई से भागता है कि वह अकेला है और उसके इसी भाव का चतुर मनुष्य समूहों के शिखर पुरुष बनकर अपने हित में दोहन करते हैं। यही शिखर पुरुष अपने लिये दूसरे समूहों को खतरनाक बताकर अपने साथ जाति, भाषा तथा धर्म के आधार जुड़े लोगों को अपने हित में संगठित करते हैं। यह सच सभी जानते हैं कि गरीब और लाचार का इंसान नहीं भगवान होता है और कथित समाज या समूह किसी के काम के नहीं होते।
महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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