समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, February 19, 2009

भर्तृहरि संदेश: मनुष्य में भेद प्राकृतिक रूप से बना

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्टितं चेत्संगी विरहं विशेषयति


हिंदी में भावार्थ-जिनके व्यक्तियों हृदय आपस मिले हों वह दैहिक रूप से एक दूसरे से परे होते हुए भी अपने को साथ अनुभव करते हैं। जिनसे हार्दिक प्रेम न हो तो वह कितने भी पास हो उनसे एक प्रकार से दूर बनी रहती है।

वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रंृगाारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्


हिंदी में भावार्थ-इस विश्व में सभी व्यक्तियों का स्वभाव ऐक जैसा नहीं होता। सभी के हृदय में व्याप्त रुचियों भिन्न होती हैं। कोई वैराग्य धारण कर मोक्ष के लिये कार्य करता है तो कोई नीति शास्त्र के अनुसार अपने कार्य कर संतुष्ट होता है तो कोई श्रंृगार रस में आनंद मग्न है। यह भेद तो प्राकृतिक रूप से बना ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में विकास का ऐसा पहिया घूमा है कि आत्मीय लोग अपने से दूर हो जाते हैं। अधिक धन और विकास की लालसा मनुष्य को अपनों से दूर जाने का बाध्य करती है पर इसे विरह नहीं मानना चाहिये। हालांकि अनेक शायर और गीतकार इसे विरह मानते हुए कवितायें, शायरी और गीत लिखते हैं पर उनको हृदय में धारण नहीं करना चाहिये। ऐसी रचनायें अध्यात्म ज्ञान से परे होती हैं। खासतौर से फिल्मों में काल्पनिक दृश्य गढ़कर ऐसे गीत रचे जाते हैं। एक देश से दूसरे देश पात्र भेजकर ‘चिट्ठी आई है’जैसे गीत लिखे जाते हैं जिसे सुनकर लोग भावुक हो जाते हैं। यह अज्ञान है। मनुष्य की पहचान उसके मन से है और अगर किसी के मन में बसे हैं और वह हमारे मन में बसा है तो उसे कभी दूर नहीं समझना चाहिये। ऐसे गीतों को सुनकर भूल जाना चाहिये। अरे जो मन में बसा है वह भला कभी दूर जा सकता है। विरह गीत रखने वाले दैहिक तत्व तक का सीमित ज्ञान रखते हैं और संगीत की धुनों से उनको लोकप्रियता मिलती है। अध्यात्म ज्ञान रखने वाले भी उनको सुनते हैं पर फिर भूल जाते हैं पर जिनको नहीं है वह भले ही कोई अपना दूर न हुआ हो फिर भी ऐसे गीतों को गुनगनाते हैं।
--------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

No comments:

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें