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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, March 26, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-गरीब होने पर भी ज्ञानी सम्मानीय होता है (garibi aur gyan-hindi sandesh)

शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें। राष्ट्र और समाज का हित इसी में है कि वह अपने यहां प्रतिभाशाली और विद्वान लोगों को संरक्षण दे ताकि वह उनको बौद्धिक रूप से सुरक्षा दे सकें। 
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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