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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, December 24, 2009

मनु दर्शन-अध्यात्मिक ज्ञान से ही सुख पूर्वक विचरण संभव (adhyatmik gyan aur sukh-hidnu dharm sandesh)

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्म उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।
अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्

हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।
बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है। आधुनिक शिक्षा के कारण आजकल अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना भले ही एक फालतु विषय समझा जाता है पर सच यह है कि उसके बिना मनुष्य केवल गुलाम बनकर रह जाता है। नौकरी चाहे कोई भी हो उसे गुलामी ही माना जाता है। धन की उपलब्धि ही दिल को चैन नहीं दिला सकती उसके लिये जीवन रहस्य को समझना जरूरी है ताकि अल्पज्ञानियों को आपको गुलाम न बना सकें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliro
http://deepakraj.wordpress.com

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