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Friday, July 17, 2009

विदुर नीति-पेट में जो पचे वही भोजन ग्रहण करना उत्तम (vidur niti-jo bhojan pache vahi khayen)

नीति विशारद विदुर महाराज कहते हैं कि
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भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वङिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भतिमिच्छता।।
हिंदी में भावार्थ
-मछली कांटे से लगे चारे को लोभ में पकड़ कर अपने अंदर ले जाती है उस समय वह उसके परिणाम पर विचार नहीं करती। उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति चाहने वाले पुरुष को ऐसा ही भोजन ग्रहण करना चाहिये जो खाने योग्य होने के साथ पेट में पचने वाला भी हो। जो भोजन पच सकता है वह ग्रहण करना ही उत्तम है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश में फास्ट फूड संस्कृति का प्रचार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं। क्या जवान, क्या अधेड़ और बूढ़े और क्या स्त्री और पुरुष, बाजारों में बिकने वाले फास्ट फूड पदार्थों को खाने में आनंद अनुभव करते हैं। यह पश्चिम से आया फैशन है पर वहीं के स्वास्थ्य विशेषज्ञ उसे पेट के लिये खराब और अस्वास्थ्यकर मानते हैं। इसके अलावा मांस खाना भी पश्चिम के ही विशेषज्ञ गलत मानते हैं।
इन्हीं पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मांस खाने से मनुष्य में अनावश्यक आक्रामकता आती है और वह जल्दी ही हिंसा पर उतारु हो जाता है। यह जरूरी नहीं है कि भोजन में विष मिला हो तभी वह बुरा प्रभाव डालता है। विष मिले भोजन को पता तो तत्काल चल जाता है क्योंकि उसकी देह पर तत्काल प्रतिक्रिया होती है पर असात्विक और बीमारी वाले भोजन का पता थोड़े समय बाद चलता है। खाने के बाद भोजन पचने से आशय केवल उसका भौतिक रूप नहीं है बल्कि भावनात्मक रूप से पचने से है। अगर मांस वाला भोजन किया तो लगता है कि वह पच गया पर उसके लिये जिस जीव की हत्या हुई उसकी भावनायें भी उसी मांस में मौजूद होती है और सभी जानते है कि भावनाओं का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता जो किसी को दिखाई दे। अतः मांस खाने वाले के पेट में वह कलुषित भावनायें भी चली जाती हैं जो उस समय उस जीव के अंदर मौजूद थी जब उसे काटा गया। यही हाल ऐसे भोजन का भी है जिसके बहुत से पदार्थ अपच्य है पर वह पेट में धीरे धीरे जमा होकर बड़ी बीमारी का स्वरूप लेते हैं। ऐसा अशुद्ध पेय पदार्थों के सेवन पर भी होता है।
श्रीमदभागवत गीता में ‘गुण ही गुणों के बरतते है’ का जो सिद्धांत बताया गया है उसका यह भी तात्पर्य है कि जैसे अन्न और जल का भोजन हम करते हैं वैसा ही उसका प्रभाव हम पर होता है और हम उससे बच नहीं सकते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि सात्विक भोजन करें ताकि हमारे विचार भी पवित्र रहें जो कि आनंदपूर्ण जीवन के अति आवश्यक हैं।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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