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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, January 29, 2009

भर्तृहरि शतकः ज्ञानियों से चर्चा में उतर जाता है अंहकार का ज्वार

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः

हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिसे देखो उसक पास ही कोई न कोई उपाधि है पर जीवन और अध्यात्म का ज्ञान कितना है यह तो समय आने पर ही पता चलता है। आधुनिक साधनों की वजह से लोगों का जीवन एकाकी हो गया है और सत्संग में कम जाने के कारण उनको पता ही नहीं लगता कि आखिर अध्यात्म ज्ञान होता क्या है? फिर आधुनिक शिक्षा से भौतिक ज्ञान तो इतना प्राप्त हो जाता है कि लोग उसे ही सम्पूर्ण समझने लगते हैं और भक्ति और अध्यात्म विषय उनके लिये पौंगापंथी हैं। जब भौतिकता से ऊब जाते हैं तो फिर ढूंढते हैं धार्मिक लोगों में शांति। ऐसे में धार्मिक ग्रंथ पढ़कर अपने को गुरु कहलाने वाले ढोंगी उनका शोषण करत हैं। होता यह है कि कोई अध्यात्म ज्ञान न होने के कारण लोग उनकी बात को ही सत्य समझने लगते हैं। फिर जब कभी वास्तविक ज्ञानी से भेंट होती है तब पता लगता है कि ज्ञान क्या है? इसलिये ज्ञानियों की संगत करना चाहिये।

कहते हैं कि नादान मित्र से दाना शत्रु भला, यह एकदम सच बात है। मूर्ख के साथ कब कहां फंस जायें पता ही नहींे लगता। मूर्ख का काम होता है बिना सोचे समझे काम करना। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो दूसरों को पीड़ा देने में अपने को प्रसन्न अनुभव करते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों से बचकर रहना चाहिये क्योंकि वह कभी भी हमारे पर प्रहार कर सकते हैं।
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