प्रगतिशील तथा जनवादियों के लिये उत्तरप्रदेश चुनाव दक्षिणपंथियों की जीत महाराष्ट्र के निकाय चुनावों के बाद दूसरा बहुत बड़ा झटका है। राज्य प्रबंध के माध्यम से समाज में बदलाव का-जिसका स्वरूप कभी स्पष्ट नहीं कर पाये-सपना देखने वाले इन दोनों प्रकार के बुद्धिजीवियों के लिये इस तरह दक्षिणपंथ का भारत में स्थापित हो जाना चिंता का विषय है। दरअसल इन दोनों प्रकार के बुद्धिजीवियों को पिछले 70 वर्षों से राज्य प्रबंध इसलिये मदद करता रहा ताकि यह आमजनों में एक सपना बेचते रहे जिसमें वह क्रांति के सहारे धनी हो जाये। इन लोगों ने कभी राज्य प्रबंध की सामान्य गतिविधियों में भ्रष्टाचार या लापरवाही को कभी चर्चा का मुख्य विषय बनाने की बजाय मानवता के पश्चिमी सिद्धांतों पर वैचारिक समागमों में समच बिताना बेहतर समझा। मनुष्यों की जरूरतों से ज्यादा उसकी अस्मिता का विषय महत्वपूर्ण समझा। कार्ल मार्क्स ने भले ही कहा हो कि आदमी की सबसे बड़ी जरूरत रोटी है पर इन लोगों ने चिकनी चुपड़ी रोटी खिलाने के सपने दिखाये। यह न हो सकता था न हुआ पर इन लोगों की वजह से राज्यप्रबंध पर लोगों का ध्यान नहीं गया जिसमें शनैःशनैः दलाल घुसते रहे।
दक्षिणपंथियों की उत्तरप्रदेश विजय दोनों की धाराओं के विचारकों के लिये अब अस्तित्व का संकट पैदा करेगी। मणिपुर में इरोम शर्मिला ने बरसों तक भूखहड़ताल कर नाम कमाया। अचानक चुनाव लड़ने पर उतरी पर हुआ क्या? उसे केवल नब्बे वोट मिले। वह मणिपुर में आफसा कानून खत्म करने के लिये लड़ रही थी पर लोगों ने उसे महत्व नहीं दिया पर दोनों धाराओं के विचाकर उसका नाम जपते रहे। वह क्यों हारी? वजह हम बता देते हैं कि लोग चाहे कितने भी परेशान हों पर वह राज्य को अस्थिर करने वाली ताकतों को पसंद नहीं करते। इरोम शर्मिला ने भले ही राज्य को अस्थिर करने का प्रयास नहीं किया पर अप्रत्यक्ष रूप से उनकी मांग संभवत ऐसे ही तत्वों की मदद करने वाली रही होगी। यही कारण है कि वह बहुत बुरी तरह से हारी-उसे केवल नब्बे वोट मिले वहां पड़े नाटो वोटों से भी कम।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने नोटबंदी को लेकर यह सही कहा है कि अमीरों की बुरी हालत देखकर गरीबो को आत्मसंतोष हुआ जिसे कोई भी पढ़ नहीं सका। हमने नोटबंदी होने के तत्काल बाद लिखा था कि इससे गरीबों को सीधे कुछ नहीं मिल रहा पर मदांध अमीरों की कुछ हेकड़ी कम होगी इससे उनको संतोष होगा। अगर आप उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम देखें तो कुछ लोगों को हैरानी है कि मुसलमानों ने भक्तों की पार्टी को वोट कैसे दे दिया? दरअसल हमारे देश के पेशेवर विद्वान मुसलमानों का बाह्य रूप देखते रहे हें उन्हें यह अनुमान नहीं है कि उनका शोषण भी उसी तरह होता है जैसे समुदायों का होता है। उनमें भी उतनी ही गरीबी है जितनी दूसरों में। उनका भी मन वैसा ही जैसा दूसरों का। ऐसे में अगर उन्हें नोटबंदी से आत्मसंतोष हुआ तो उसमें चौंकने वाली बात नहीं है। हमें आपत्ति इस पर है कि किसी भी समुदाय को अपना बौद्धिक गुलाम या बंधुआ समझकर उसे संबोधित किया जाये। शायद उत्तरप्रदेश में यही हुआ कि सभी समुदायों के गरीबों के मन में यह बात आई कि उन्हें बपौती समझने वालों को अब सबक सिखाया जाये-यही हुआ भी। भक्तों के इष्ट ने शायद यह समझा तभी आगे बढ़कर प्रचारकर जानमानस को अपनी दल की तरफ खींच लिया।
अब हमारे समझ में आ गया है कि उत्तर प्रदेश में भक्तों ने विजय क्यों हासिल की? दरअसल भक्तों के विरोधी सामान्यजन को गूंगा, बहरा और अंधा समझते हैं इसलिये दलित, अल्पसंख्यक तथा पिछड़ा वर्ग में बांटकर यह समझते हैं कि वह उनकी बपौती है। यह लोग भी समझ गये हैं कि भक्तों का दल भले ही उनका सीधे भला न करे पर बुरा भी नहीं करेगा। कम से कम भक्त अपनी पहचान छिपाते नहीं तो दूसरी की से बचते भी नहीं। महत्वपूर्ण बात यह कि किसी भी वर्ग को लल्लू नहीं समझते। शायद यही कारण है कि उत्तरप्रदेश के लोगों ने उनको खुलकर वोट दिये हैं। हालांकि भक्त तथा उनके इष्ट को यह समझ लेना चाहिये कि राज्यप्रबंध की प्रचलित प्रणाली में अगर बदलाव नहीं हुए तो फिर पूरा देश बहुत निराश होगा।
इरोम शर्मिला को पता होना चाहिये था कि भूख हड़ताल तथा चुनावी राजनीति में फर्क होता है
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इरोम शर्मिला 16 साल तक भूख हड़ताल पर रही। चुनाव लड़ तो हार गयीं तो कथित विद्वान पूरे भारतीय समाज पर पिल पड़े। अरे, गुजरात के एक योगी के बारे में हमने पढ़ा सुना और देखा था। उसने तो 70 वर्ष से न खाना खाया न पानी पिया है पर वह अपने महान कर्म का आंकलन करने के लिये चुनाव लड़ने नहीं गया। आत्ममुग्धतावश आंदोलन कर प्रचार में प्रसिद्धि पाना अलग बात है पर चुनाव में जाकर प्रजा का मन जीतना दूसरी बात है। फिर आप यह क्यों सोचते हैं कि आप आंदोलन कर समाचार जगत में छा गये हैं तो पूरी जनता आपकी जयजयकार करने लगे-आपका यह पता नहीं इस देश मे आमजनों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो न अखबार पढ़ता है टीवी देखता है और वहां तक पहुंचने के लिये अलग से प्रयास करने होते हैं-यही चुनावी राजनीति है। यह किसी के बूते की भी नहीं है। अगर आप उसे कोस रहे हैं तो कहना चाहिये कि ‘नाच न आवै, आंगन टेढ़ा बतावै’।
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