समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, January 18, 2017

तात्कालिक राजनीतिक प्रसंगों पर स्वतंत्र लेखकों के पाठ बेगार करने जैसे-हिन्दी लेख (Freelancer writter word unneccary on Current Political Afair-Hindi Article)

               समसामयिक विषय में चुनावी राजनीति पर लिखना समय खराब करना है।  यहां हम बता दें कि राजनीति एक व्यापक शब्द है जिसका दायरा राजकाज से दूर समाज ही नहीं वरन् पारिवारिक विषयों तक व्यापक रूप से फैला रहता है।  केवल समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं के कार्य ही नहीं वरन् हर मनुष्य का अर्थकाल राजसी विषयों में बीतता है। हमारा लिखना राजसी कर्म है और उसके लिये हमने अपनी नीति भी बना रखी है जिस कारण किसी भी चुनावी राजनीति के दल विशेष से संबंध नही रखा। 
मूल विचार राष्ट्रवादियों से मिलता जुलता लिखता है पर सच यह है कि हम विशुद्ध रूप से भारतीय अध्यात्मिक दर्शन वादी है-मानते हैं कि हमारा दर्शन हर विषय पर-यौगिक, सात्विक, राजसी तथा तामसी-पर अपनी स्पष्टतः राय रखता है और हमें विदेशों से वैचारिक सिद्धांतों का आयात नहीं रहना चाहिये। राष्ट्रवादियों के हिन्दूत्व सिद्धांत से भले ही यह विचार मिलता जुलता दिखे पर वास्तव में यह अलग है। चुनावी राजनीति में प्रगतिशील, जनवादी और राष्ट्रवादी विचाराधाराओं का द्वंद्व दिखता है पर वास्तव में वह केवल प्रचार तक ही सीमित है। राजकाज की अंग्रेजों ने जो शैक्षणिक, आर्थिक, संविधानिक तथा प्रबंध व्यवस्था हमें गुलाम बनाये रखने के लिये बनायी उसमें जरा भी बदलाव नहीं आया। संविधान की रक्षा करने वाली पुलिस का कानून अंग्रेजों के समय का बना है जिसमें बदलाव की मांग करते हुए सात दशक बीत गये पर हुआ कुछ नहीं।  इसका कारण यह है कि हमारे देश में चुनाव का समर सिंहासन पाने के लिये लड़ा जाता है न कि व्यवस्था सुधार के लिये।  सुधार में बौद्धिक मंथन जरूरी है जबकि चुनाव के सिंहासन पर बैठने से मिलने वाली सुविधायें मस्तिष्क को आलसी बना देती है। सत्ता  से समाज सेवा करने का नारा जनवादियों  का है जिसे प्रगतिशील और राष्ट्रवादी दोनों ने अपना लिया।
1971 से अखबार पढ़ना प्रारंभ किया। 1975 का आपातकाल हमें याद है। बाद में जनतापार्टी की सरकारी बनी तब हम बहुत खुश हुए थे कि चलो बदलाव आया।  फिर एक के बाद एक चुनाव देखते रहे।  व्यवस्था वही ढाक के तीन पात रही।  अनेक ऐसे नेताओं को जो भारी बदलाव का नारा लगाते हुए आये। चुनाव जीते और फिर कुछ समय बाद देखा तो वह उन्हीं लोगों के साथ हो गये जिनके विरुद्ध चुनाव लड़ा था।  अच्छा खासा व्यक्ति सांप्रदायिक होने का आरोप लेकर चुनाव जीता और फिर धर्मनिरपेक्ष हो गया।  अनेक धर्मनिरपेक्ष बंधु सांप्रदायिक पार्टी को असली धर्मनिरपेक्ष बताते हुए उसमें शामिल हो गये।
33 वर्ष हम सरकारी नौकरी में रहे। जीवन का प्रारंभ पत्रकारिता से किया।  स्थानीय अखबारों में प्रथम पृष्ठ का संपादन के साथ ही संपादकीय लिखने का काम भी किया। एक अखबार में अपनी सहविचाराधारा के समर्थन में लिखा तो दूसरे में जाकर विपरीत विचारधारा का समर्थन भी किया। सरकारी नौकरी के पच्चीस वर्ष बाद  एक बड़े अखबार के प्रबंध निदेशक से एक मंदिर में भेंट हुई तो उन्होंने हमे सेवानिवृत्ति लेकर अपने अखबार में आने का निमंत्रण दिया। जिस पर हंस पड़े और उनके लिये प्रशंसात्मक वाक्य कहकर निकल लिये। तब तब हमें अंतर्जाल पर लिखने में ही संतोष होने लगा था फिर एक स्थाई नौकरी छोड़कर वहां जाना ठीक नहीं लगा। सरकारी नौकरी में बाबू थे पर वास्तविकता में यह भी लगा कि पत्रकारिता में भी हमने एक तरह से बाबूगिरी की थी जहां बौद्धिक स्वतंत्रता एक छलावा भर है।
यही कारण है कि अपना लेखन हम कभी एक दल की तरफ नहीं झुका पाते।  दूसरी बात राजनेताओं का नाम लेकर टिप्पणी नहीं करते क्योंकि अधिकतर इसमें  व्यवसायी की तरह इसे करते हैं।  पहले नेता कार्यकर्ताओं के भरोसे रहते थे जो चने खाकर पानीपीकर उन्हें चुनाव जिताते थे। अब हालत यह है कि चुनाव से पूर्व अनेक जगह पैसा और शराब पकड़ी जाती है-तय बात है कि कार्यकर्ताओं के साथ मतदाता को भी प्रलोभन देने का प्रयास होता है।  राजकीय सेवा में दौरान हमने चुनाव भी कराये। उसके अनुभव तत्काल बाद कहीं लिखने का साहस नहीं हुआ। बहरहाल यह पता चल गया कि दलीय लोकतंत्र में विचाराधारा का समर्थन या विरोध एक हल्की प्रतिक्रिया है जिसका राज्य प्रबंधक बनने के बाद कोई अर्थ नहीं रह जाता।
आजकल समाचार देखना भी बंद कर दिया है क्योंकि लगता है कि सब कुछ प्रायोजित है तो उस पर क्यों अपनी मानसिक ऊर्जा नष्ट की जाये।  टीवी समाचार चैनलों को देखना ही बेकार है। सुबह अखबार देखते हैं उससे सब हाल पता लग जाता है। अभी पिता पुत्र की विवाद लीला चल रही थी।  लोग तमाम तरह के कयास लगा रहे थे पर हम तो देश के प्रचार प्रबंधकों की पटकथा तथा उस पर अभिनय करने वालों की कला पर अचंभित थे। पूरे तीन महीने से टीवी चैनलों के विज्ञापन का समय पास करा दिया। जहां तक देश की व्यवस्था का सवाल है तो हमें खुशी है कि यह देवभूमि है और भगवान स्वतः इसका संचालन करते हैं। अतः तात्कालिक चुनावी राजनीतिक प्रसंगों पर लिखना हमें बेगार लगती है।
--------
-

No comments:

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें